‘तुम भी खाना बनाना सीख लो, नहीं
तो ससुराल जाकर क्या करोगी’
‘अब तुम बड़ी हो गई हो लड़कों के
साथ मत खेला करो’
‘लड़कों के सामने ज्यादा मत बात
किया करो, झुककर रहो अगर लड़के की गलती है तो भी’
‘काम करने का मन नहीं करता तो
घरवालों से मार खानी पड़ती है’
‘लड़की हो, इतना पढ़ने का क्या
फायदा’
‘अगर भाई-बहन बाहर साथ जाते हैं,
भाई ट्यूशन के लिए भी छोड़ने जाता है तो बाहर वाले दोनों को बॉयफ्रेंड और
गर्लफ्रेंड समझते हैं’
ये कुछ ऐसे संदेश हैं जो वर्कशॉप में भाग लेने
वाली प्रतिभागियों ने अपने परिवार, आस पड़ोस के लोगों से सुनी हैं, इसलिए क्योंकि
वो लड़कियां हैं। और फिर ये सवाल उठता है कि जेंडर आधारित भेदभाव है कहां?
बच्चों से जेंडर पर आधारित चर्चा क्यों करनी चाहिए? क्या
किशोर-किशोरियां जेंडर जैसे संवेदनशील मुद्दे को समझ भी पाएंगे। उन सभी सवालों का
जवाब ये चंद वाक्य हैं।
जेंडर, यौनिकता और प्रजनन स्वास्थ्य पाठ्यक्रम
में ‘जेंडर’ पर बातचीत करना और समझना बनाना एक अहम पड़ाव हैं। प्रतिभागी अपने जीवन
में झांक पाएं, जेंडर को देख पाएं और अगर उन्हें लगता है कि उनके लड़के होने या
लड़की होने की वजह से उन्हें किसी अनचाहे डिब्बे में बंद कर उनकी क्षमताओं पर रोक
लगाई जा रही है तो उसे तोड़ने की हिम्मत जुटा पाए ये एकमात्र उद्देश्य होता है इस
सत्र का।
वर्कशॉप की शुरुआत एक मनोरंजक खेल के साथ हुई
जिसमें प्रतिभागियों को निर्देश के अनुसार दौड़ना, रुकना, नाचना और कूदना था। मुझे
ये खेल काफी पंसद आया क्योंकि भले ही निर्देश दिए जा रहे हो, लेकिन यहां परिभाषाओं
का ढांचा तोड़ा जा रहा था, इसके साथ साथ नई परिभाषाओं का बनाया और तोड़ा जा रहा था
और प्रतिभागी खुलकर भाग ले रहे थे।
पहले भाग में ‘बॉय और गर्ल’ एनिमेशन वीडियो दिखाई गई।
कानाफूसी के मज़ेदार खेल की मदद से प्रतिभागियों
के साथ जेंडर की कहानी की रचना की गई। जेंडर की कहानी गढ़ना आसान नहीं है, क्योंकि
कई मूलभूत मुद्दे बीच में आते है, यहां जब सवाल उठता है कि बच्चे आते कहां से हैं
तो मैंने कई बार प्रशिक्षकों को अटकते हुए देखा है, किशोर-किशोरियों को छोड़े तो
युवा से बातचीत करते दौरान भी एक अलग हिचक देखी है पर यहां परिस्थिति बिलकुल
विपरित थी। ऐसा इसलिए क्योंकि जब सवाल उठा कि महिला गर्भवती कैसे होती है तो झट से
जवाब आया “महिला और पुरुष सेक्स करते हैं तो महिला गर्भवती होती है।” मेरे लिए ये बहुत बड़ी बात थी, बहुत भावुक थी मैं क्योंकि ये बात एक 12
साल की प्रतिभागी ने एकदम आत्मविश्वास से लबरेज होकर कही थी। यही छोटे-छोटे पल साहस
के काम की गहराई और जरुरत का कदम कदम पर एहसास दिलाते हैं।
इसके बाद साहस टीम के सदस्यों और हमारे साथ आए
नए सदस्य रॉबिन ने अपने जीवन की वो कहानी प्रतिभागियों के साथ सांझा की जिसमें
उन्हें लड़के होने या लड़की होने का एहसास कराया गया। इस एहसास की यादें अच्छी
नहीं थी क्योंकि अब तक ये यादें उनकी क्षमताओं पर पहरा देती है साथ ही उनकी सोच का
दायरा संकुचित करती हैं।
जेंडर को परिभाषित करने के बाद प्रतिभागियों को
4-4 के ग्रुप में बांटा और उनसे 3 ऐसे संदेशों को सांझा करने के लिए आमंत्रित किया
गया जिनसे उन्हें पता चला कि वो लड़की हैं या लड़का।
‘जब मैं आज वर्कशॉप के लिए आ रही
थी तब पापा के लिए खाना बनाना पड़े जबकि मैं वर्कशॉप आने के लिए लेट हो रही थी’
‘पार्क से लेट पहुंचने पर मम्मी
डांटती है ताने देती हैं जबकि मेरा भाई कितना भी लेट आए उससे कोई कुछ नहीं कहता’
‘पापा कहते हैं पढ़-लिखकर क्या करेगी,
झाडू पोंछा ही तो करना है तुझे’
‘तुम रात को बाहर नहीं जा सकती,
लड़कों के साथ घूमना नहीं चाहिए, सलवार सूट के उपर दुपट्टा डालना है’
इन सभी संदेशों को सुनना मेरे लिए बहुत मुश्किल
था, आखिर हम अपने बच्चों को कैसी बातें सीखा रहे हैं। कहा जाता है कि बच्चे देश का
कल हैं, लेकिन जिनका आज इतनी भ्रांतियों से भरा है वो देश का कल कैसे बनेंगे। इन
संदेशों ने मेरे मन की घबराहट को काफी बढ़ा दिया था।
हम लोग ज्यादातर 4 जगहों में रहते हैं- परिवार,
स्कूल, सार्वजनिक स्थल और खेल-कूद। इसी को ध्यान में रखते हुए प्रतिभागियों को एक
बार फिर 4 अलग-अगल ग्रुप में बांटा गया और उन्हें उपरोक्त जगहों में दिखने वाले
जेंडर आधारित भेदभाव को सांझा करने के लिए आमंत्रित किया गया।
प्रतिभागियों ने कई रोचक और अहम बातें बड़े गोले
में बांटी, जैसे सार्वजनिक स्थल वाले ग्रुप का मानना था-
‘अगर पार्क में लड़का और लड़की
साथ दिख जाए तो उनपर प्रेमी-प्रेमिका होने का ठप्पा लग जाता है’
‘होटल में पैसा लड़के ही खर्च
करते हैं’
‘सार्वजनिक स्थलों में लड़के
चिपकते हैं, लगता है चांस मार रहे हो। हो सकता है लड़की भी चांस मारना चाहती हो’
‘लड़की के मदद करने को गलत समझा
जाता है’
घर या परिवार में- ज्यादातर घर के काम लड़कियों
की जिम्मेदारी समझा जाता है, लड़कों को बहनों के मुकाबले ज्यादा खाने को मिलता है,
लड़कों को पढ़ने को भेजा जाता है लड़कियों को नहीं, भाइयों के साथ सोने को भी मना
किया जाता है।
स्कूल में- लड़के और लड़कियां अलग-अलग बैठते
हैं, टीचर सिर्फ लड़कों को डांटती है, लड़कों को खेलने दिया जाता है, लड़कों के
क्लास में बोलने पर कोई रोक-टोक नहीं होती, लड़के खुलेआम गाली-गलौच करते हैं।
खेल में- ज्यादातर भाग-दौड़ और ताकत वाले खेल
लड़के खेलते हैं जैसे फुटबॉल, क्रिकेट, हॉकी, कबड्डी आदी वहीं लड़कियां घर-घर
खेलती है, खेल के मैदान में सबसे ज्यादा लड़के दिखते हैं।
इस भारी सत्र के बीचो-बीच काफी मज़ेदार और
चौंकाने वाली बातें भी हुई। मसलन कई प्रतिभागी मेरे पास पिछले सत्र से जुड़े
सवालों के साथ पहुंचे-
‘ये कंडोम और फ्लेवर का क्या
संबंध है’
‘सेक्स करते समय या उसकी बात करते
समय घिन क्यों आती है’
‘दीदी ये बॉयफ्रेंड और गर्लफ्रेंड
बनते कैसे हैं’
मैंने मुस्कुराते हुए इन सवालों का खुलकर जवाब
दिया। जो प्रतिभागी सेक्स शब्द निकालने में हिचकिचा रहे थे वो आज इससे जुड़े कितने
अलग- अलग सवाल खुलकर पूछ रहे हैं, मैं बस खुश थी। दूसरी मज़ेदार बात ये रही कि
प्रतिभागी अब इस गोले से इतने सहज हो गए हैं कि वो किसी को भी अपना साथी बनाने से
नहीं घबराते, इसलिए पूरी लड़कियों को ग्रुप होते हुए भी साहस के साथी विनीत और एक
समाचार पत्र से आए साथी रॉबिन को अपने गोले में न केवल शामिल किया बल्कि उनके साथ
हर गतिविधि में बढ़-चढ़कर और खुलकर हिस्सा लिया।
रॉबिन ने कहा, “बहुत बेहतरीन काम कर रहे हैं आप
लोग। कितनी ताकत इस जगह में जिसने लड़कियों को इतना साहसी बना दिया है कि वो अपने
जीवन से जुड़े मुद्दे पर खुलकर बातचीत तो कर ही रही हैं साथ ही अपनी राय भी रखने
को सक्षम हैं।”
इन सभी बातों को सुनकर, और हां इस ब्लॉग में चंद
शब्दों में बयां करते हुए बस एक लम्बी गहरी सांस ले रही हूं।
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