“ये शारीरिक बदलाव इसलिए होते है
क्योंकि उन्हें मां बनना होता है”
“ये शारीरिक बदलाव इसलिए होते है
क्योंकि लड़की औरत बनती है”
क्या सच में शारीरिक बदलाव होने का ये कारण है? बॉयलॉजी
की नजर से देखा जाए तो नहीं पर हां सामाजिक दृष्टि से एकदम सही जवाब है, और ये
जवाब दिए है 12-14 साल की उम्र की लड़कियों ने। जवाब सुनकर तो नहीं पर जिसने जवाब
दिया है वो सुनकर हैरानी तो होगी ही, क्योंकि अक्सर हम सोचते हैं कि ये तो बच्चे
हैं इन्हें क्या पता होगा? पर सही मायने में किशोरावस्था में
होने वाले बदलाव अपने साथ कई सवालों को जन्म देते हैं, अपने साथ भ्रांतियों की
ब्यार भी लाते हैं। शारीरिक बदलाव पर आधारित उत्सुकता, सवालों, भ्रांतियों और अपने
ही शरीर से सहजता के उद्देश्य हेतु दूसरे सत्र का निर्माण किया गया है।
एक मज़ेदार खेल के साथ सत्र की शुरुआत की, क्योंकि
ये सत्र उन मुद्दों पर चर्चा खोलने वाला है इसलिए प्रतिभागियों को पहले ही कुछ
सहमतियों से रुबरु कराया गया।
पहली प्रक्रिया में प्रतिभागियों को 4 ग्रुप में
बांटा गया और तीन सवाल पर चर्चा के लिए आमंत्रित किया गया। मज़ेदार बात ये रही है
कि इस सत्र में मौजूद दो महिला वॉलियंटर्स सोच में पड़ गई, किशोरियों के ग्रुप में
रहकर वो ये ही सोच रही थी कि उन्हें पहली बार कब पता चला कि वो लड़की हैं? इसके
साथ ही वो इस बात पर विचार विमर्श कर रही थी कि उनकी बेटी ने या फिर बेटे को कैसे
पता चला कि वो लड़का हैं या लड़की हैं? क्या उन्होंने ये बात
बताई थी या फिर ऐसे संदेश दिए जिससे उन्हें इस बात की जानकारी हुई। सबसे अहम बात
ये कि वो सोचने पर मजबूर हुए कि क्या उनके द्वारा दिए गए संदेश सही रहे?
सत्र का ये पहलू मुझे काफी पसंद है, क्योंकि हम
इस मुद्दे पर बात ही नहीं करते ऐसे में अगर
ये चर्चा छेड़ दी जाए तो न जाने कितनी बातें, कितने अहसास, अनुभव, धारणाएं
सामने आएंगी? और तब उन धारणाओं को तोड़ना शायद आसान रहे। खैर दूसरी
प्रक्रिया में प्रतिभागियों को शरीर का मानचित्र बनाकर अपने शरीर के अहम अंगों को
रेखांकित करना था, और शरीर से जुड़े सवालों पर चर्चा करनी थी। बड़े उत्साह से
ग्रुप में प्रतिभागियों ने फैसला लिया कि किसका बॉडी मैप बनाया जाएगा, कौन रेखा
बनाएगा, कौन अंग बनाएगा और कौन उनका नाम लिखेगा? काफी झिझकते
हुए सवालों के जवाब सामने आए
“अगर कोई लड़का लड़की के कंधे पर
हाथ रख दे तो लोग गलत समझते हैं”
“गलत मतलब”
“बुरा समझते हैं”
“मतलब दीदी वो उसे लड़की का
बॉयफ्रेंड समझते हैं”
“हमेशा दुपट्टा पहनना पड़ता है”
एक बात तो बहुत खुलकर सामने आई, वो थी कि शारीरिक
बदलाव जैसे महावारी और स्तन को लेकर किशोरियां काफी असहज महसूस करती हैं। इसके बाद
तीनों ग्रुप ने बड़े गोले में अपनी प्रेजेंटेशन रखी।
किशोरावस्था में हो रहे बदलाव को लेकर जब बातचीत
हुई तो हंसी के भव्वारे छूट गए। यकीन मानिए अपने खुद के यौनांग को देखकर लड़कियां
10 मिनट तक हंसती रही, ये खुश होने वाली हंसी बिलकुल नहीं थी, ये हंसी सामाजिक
बंधन, झिझक, शर्मिंदगी और इस मुद्दे पर असहजता को लेकर थी। इस बात ने मुझे हैरान
नहीं किया क्योंकि इस बारे में बात करना वर्जित है, गलत माना जाता है और न जाने
कितनी धारणाएं इस बात से जुड़ी हुई हैं।
सत्र के आखिरी भाग में प्रतिभागियों को ग्रुप
में बांटते हुए तीन कहानियां दी गई जिसे उन्हें पढ़ना था, समझना था और अभी तक जो
सीखा उसे जोड़कर अपनी राय पेश करनी थी।
“दीदी उसे फुटबॉल खेलना चाहिए,
सभी को ये शारीरिक बदलाव होते हैं, इन बदलावों की वजह से खेलना छोड़ देना सही नहीं
है।”
“वो बिलकुल सामान्य है क्योंकि
किसी में शारीरिक बदलाव जल्दी शुरु हो जाते हैं, तो किसी में देर से। और इसको लेकर
चिढ़ाना नहीं चाहिए।”
ये सत्र काफी मायनों में बेहद महत्वपूर्ण और
हलचल पैदा करने वाला रहा क्योंकि प्रतिभागियों के साथ साथ प्रक्रिया में शामिल
लोगों के मन में कई सवाल पैदा हुए। इस मुद्दे पर बातचीत के औचित्य से लेकर कितनी
जानकारी देना और किस उम्र में बातचीत शुरु करना जैसे सवाल शामिल थे। इस मौके पर
मैं सिर्फ ये सोच रही थी कि आखिर ये कौन निर्धारित करेगा कि किसे कितनी जानकारी दी
जाए, और क्या हम उतने काबिल है कि जानकारी का ये रेंज समझ पाएं।
शायद इस सवाल का
जवाब हमारे अंदर ही है, जिसपर समाज की एक चादर पड़ गई है। और हां जैसे ही हम अपने
खुद के शरीर के बारे में बात करते हैं तो खुद ही इस जानकारी को फिल्टर करने लगते
हैं, मानती हूं कि ये मुद्दा असहज करने वाला है पर ये सोचना भी जरुरी है कि ये
असहज हैं?
निजी तौर पर मेरे लिए ये सत्र काफी अनुभव भरा
रहा, सवालों का एक भंवर पैदा करने में सफल रही और हां खुद के लिए भी नए सवाल जागे
हैं :-)
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