Saturday, 8 April 2017

महावारी- झिझक, शर्म को छोड़कर हकीकत की झलकियां



जेंडर, यौनिकता और प्रजनन स्वास्थ्य पाठ्यक्रम के दूसरे सत्र मेरा शरीर बदल रहा है?’ में कई सवालों के जवाब में एक मुद्दा जो बार बार सामने आ रहा था वो था महावारी का, इस शब्द से जुड़ी कहानियां, भावनाएं और अनुभव एकदम नकारात्मक थे- ऐसा लग रहा था मानो महावारी ने उन्हें ऐसी बेड़ियों में बांध दिया है जिसके बारे में बात करना तो शर्मनाक है ही पर इसकी वजह से वो उन सब चीजों से महरूम हो जाती है जो उनके मौलिक अधिकार है। ऐसे में महावारी क्या है, इसकी अहमियत और क्यों इसे एक धब्बे की तरह देखा जाता है पर बातचीत करना बेहद जरुरी लगा।

आखिर ये है क्या ?

एक रोचक खेल के बाद महावारी पर आधारित तीसरे सत्र की शुरुआत की गई। प्रतिभागियों को सैनेटरी पैड दिखाते हुए पूछा गया कि क्या उन्होंने इसे देखा है, अगर हां तो कहां? और किस स्थिति में इसका इस्तेमाल किया जाता है? सवाल पूछने की देरी थी कि एक बार फिर हंसी की फुव्वारे छूट गए। मुझे पता है इस हंसी के पीछे वो झिझक और शर्म है जो इस मुद्दे पर चुप्पी रखने की वजह से आती है। अधिकतर प्रतिभागियों को पता था कि सैनेटरी पैड का इस्तेमाल महावारी के दौरान किया जाता है और कुछ ने हिम्मत करके इसके बारे में बड़े ग्रुप में बांटा भी।
 
खेल-खेल में


इसके बाद उन्हें तीन सवालों से रुबरु होना था जिनमें से दो का उत्तर हां या नहीं में देना था और तीसरा महावारी से जुड़ी भावनाओं से संबंधित था। सैनेटरी पैड को देखने या इस्तेमाल करने के सवाल में ज्यादातर प्रतिभागियों ने शर्मिंदगी या बुरा लगना पर मुहर लगाई। 





इस एक्टिविटी के बाद प्रतिभागियों को हैलो पीरिडियसफिल्म दिखाई गई जिसमें महावारी से जुड़ी हर जानकारी मसलन महावारी क्या है, क्यों होती है, किस उम्र में होती है, इस दौरान हमें क्या करना चाहिए इत्यादि को बेहतरीन तरीके से समझाया गया है। इसमें दो अहम बातें मैंने देखी और समझी, पहली ये कि जो प्रतिभागी पहले झिझक रहे थे, हंस रहे थे, सिर झुकाकर बैठे थे अब वो भी फिल्म को गौर से देख रहे है, इसके साथ ही वो महावारी संबंधित बातों पर चर्चा भी कर रहे है, सवालों के जबाव देने के लिए एकदम तत्पर थे। 


दूसरी ये कि अक्सर हम ये सत्र किशोर-किशोरियों को साथ बैठकर करते हैं, चूंकि यहां पूरा समूह किशोरियों का है इसलिए हमने साहस से जुड़े साथी विनीत को शामिल करने का निर्णय लिया।

विनीत का ये पहला अनुभव था जब वो एक बेहद संवेदनशील मुद्दे पर करीब 30 किशोरियों के साथ बातचीत करने वाला था ऐसे में वो काफी असहज और बैचेन था, पर उसकी मौजूदगी दो तरह से काफी अहम थी- एक खुद उसके लिए क्योंकि उसने इन मुद्दों पर अभी काम करना शुरु किया और पहले कभी इन बातों के बारे में उसने कभी चर्चा नहीं की, और दूसरा प्रतिभागियों के लिए- अगर वो विनीत के सामने खुलकर महावारी पर बात कर पाई तो वो कभी किसी के सामने झिझकेगी नहीं और उनका आत्मबल भी बढ़ेगा। 

हैलो पीरिडियस फिल्म देखना विनीत के लिए काफी मुश्किल भरा रहा, इस दौरान कई भावनात्मक उठा-पटक से गुजरते हुए भी वो सत्र में न सिर्फ मौजूद रहा पर अगली एक्टिविटी में भी उसने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। मेरे लिए ये एक नया अनुभव था, अक्सर मैंने अपने पुरुष साथियों को काफी असंवेदनशील व्यवहार करते, माखौल उड़ाते और परिस्थिति की गंभीरता को नजरांदाज करते हुए देखा है ऐसे में एक पुरुष खुले विचारों से एक शारीरिक बदलाव के बारे में समझता और उसपर इस मुद्दे का इतना गहरा असर पड़ता है ये विचार करने वाली बात रही।

महावारी से जुड़ी कई बातें जो हमें सुनने को मिलती है अपने समाज से, परिवार से, स्कूल से, दोस्तों से उन्हें चार्ट पेपर पर माइंड मैंपिग के जरिए उतारा गया जैसे महावारी के दौरान लड़कियां अपवित्र होती है, पूजा नहीं करना, नमाज नहीं पढ़ना, अचार नहीं छूना, अकेले रखना इत्यादि। महावारी से जुड़े वैज्ञानिक तथ्य और सामाजिक आवाजों की तुलना करके पूरी पारदर्शिता से देखा गया जिससे प्रतिभागियों में समझ बनी कि महावारी एक शारीरिक बदलाव है जो एक लड़की के लिए बेहद अहम है, इसी के जरिए वो आनेवाले जीवन में बच्चे को जन्म दे सकती है, बाकी बातें सच या झूठ हो सकती है- जरुरी ये है कि जब भी कोई बात बताई जाए तो उसपर सवाल पूछा जाए और अगर वो सही लगे तो ही माने।



इसके बाद प्रतिभागियों को 4-4 के ग्रुप में बांटा गया, सभी को एक परिस्थिति दी गई जिसपर उन्हें एक नाटक बनाकर सबके सामने पेश करना था। रंगमंच की शायद यही खासियत है कि वो मुद्दे की समझ को बखूबी दूसरों के सामने दर्शा सकता है। इसके साथ ही नाटक तैयार करते समय जिस तरह प्रतिभागियों ने एक दूसरे के साथ चर्चा की, कहानियों को ट्वीस्ट किया, परिस्थितियों में अपनी समझ पिरोई और कहानियों को अमली जामा पहनाया वो काबिल-ए-तारीफ़ रहा। 




चाहे फिर वो मेट्रो में एक लड़की के स्कॉर्ट पर दाग लगने की परिस्थिति में एक महिला का लड़की को पैड देना हो, एक मां का अपनी बच्ची को महावारी के प्रति जानकारी देना हो, रक्षाबंधन पर एक बहन का अपने भाई को बतलाना हो कि वो अपवित्र नहीं और पूजा कर सकती है या फिर महावारी के दौरान क्रिकेट खेलने का फैसला लेना हो- चारों ही रो- प्ले रोंगटे खड़े कर देने वाले थे। जो प्रतिभागी डरे-सहमे, झिझक कर बैठते थे वो खुलकर नाटक में भाग ले रहे थे, चर्चा कर रहे थे, सवाल उठा रहे थे और मेरा दिल मंद मंद मुस्कुरा रहा था मानो दिल में छुपी आस को हवा मिल रही हो, क्योंकि बदलाव की ब्यार तो ऐसे ही शुरु होती है।  
मेट्रो में मदद करती महिला

मैं खेलूंगी क्रिकेट

बेटी को महावारी की जानकारी देती मां

भाई को समझाती बहन


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