खुशीपुरा गांव में किशोरियों और महिलाओं
के साथ कार्यक्रम करते हुए हमें 4 साल हो गए हैं। लेकिन जो सबसे बड़ी रुकावट
लड़कियों की आजादी और उनके अधिकारों को पाने में हैं वो उनका खुद का परिवार है।
सदियों से चलती आ रही पितृसत्ता को मजबूती परिवार का ढांचा दे रहा है ऐसे में हमने
साहसी गर्ल्स कार्यक्रम की किशोरियों के घरों में जाकर उनके माता पिता से मिलने का
अभियान शुरु किया। जहां कई बार परिवार से हमें दो टूक जवाब मिला वहीं कई परिवारों
ने आगे बढ़कर हमारे साथ चलने का फैसला भी लिया – हालांकि उन्होंने भी कभी कभार
समाज के चार लोगों का डर भी साझा किया। लड़कियों के साथ साथ घर में विकलांग जन जो
लड़का हो या लड़की दोनों को ही पर्दे के पीछे छिपाकर रखा देखा गया।
अगर गांव को विकसित करना है उसे आगे
बढ़ाना है तो सभी को आगे बढ़ना होगा – खासकर उन सभी पहचानों को जिन्हें समाज लोगों
की आंखों से दूर रखना चाहता है। 17 वर्षीय युवा जिसे CP है उसके घर में हमारी ये हमारी तीसरी
विस्ट रही। घर में घुसते ही रमेश (नाम बदला हुआ) की हल्की मुस्कुराहट ने हमारा
स्वागत किया। उसने बड़े उत्साह से बताया कि ड्राउइंग कॉपी में उसने रंग भरे, हमें
याद भी किया और उसकी माता जी ने भी अपनी किताब में रंग भरा। साहसी गर्ल्स के साथ
कहानी सुनने और तैयार करने की कार्यशाला की तो यहां भी हमने सोचा क्यों न यहां भी
कहानी सुनाई जाए। रमेश के लिए हम दो कहानियों की किताबें लेकर आए – उसकी इच्छा के
अनुसार हमारे एक साथी ने कहानी पढ़ कर सुनाई। धीरे धीरे घर के बाकी सदस्य, हमारी
प्रोग्राम में हिस्सा लेने वाली प्रतिभागी भी आ गई। और इस तरह हम सभी ने कहानी का
आनंद भी उठाया और उससे सीख भी ली।
रमेश के घर से दो किशोरियां हमारे
कार्यक्रम में आती है, उन्हें हमने जिम्मेदारी सौंपी की वो हर दूसरे दिन उसे एक
कहानी पढ़कर सुनाए और साथ ही पढ़ने में उसे सहयोग भी करें। बाद में ब्लॉक के जरिए
हिन्दी की वर्णमाला और नम्बर याद करने की शुरुआत की। इन छोटी छोटी गतिविधियों को
करने का एकमात्र उद्देश्य ये ही कि रमेश अपने उम्र के युवाओं की तरह पढ़ाई से
जुड़े, उसकी रुचि पढ़ने में लगे और साथ ही गांव समाज की जो मानसिकता है लगातार
विकलंगता पर पर्दा डालकर उन्हें या तो अदृश्य करने की या फिर समाज से दूर रखने की
उसे चुनौती दे पाएं। ये पहले वो कदम है जो रमेश अपने खुद के लिए उठा रहा है और हम
इस सफर में उसके हमकदम है।
इसके बाद हम सभी ने गांव से जुड़ी कुछ
बातें की, रमेश ने आगे पढ़ने की इच्छा जताई जिसपर हम काम करने की कोशिश करेंगे और
फिर थोड़ा चलपान करते हुए हम आगे बढ़े।
गांव में लगातार अलग अलग किशोरियों को
लेकर अफवाहें फैलाई जा रही है कि किसी के पास फोन मिला है, तो कोई लड़की किसी
लड़के के साथ बातचीत करते हुए देखी गई है इत्यादि। समाज की कुरीतियों और
किशोरावस्था के मुद्दों पर बनी चुप्पी का आघात किशोरियों पर ही पड़ रहा है। इसी
सिलसिले में हमने एक किशोरी से बात की जिसपर आरोप लगाया जा रहा है कि उसके पास फोन
मिले है, और वो लड़कों से बात करती है और छोटी छोटी बातों का बहाना बनाकर घर से
निकल जाती है। पर असल बात तो ये है कि वो घर की सबसे बड़ी बेटी है, बहुत कम उम्र
में मां की तबियत खराब होने की वजह से उसकी पढ़ाई छुड़ा दी गई बाद में घर में
बढ़ते काम, पारिवारिक विवाद और उम्र का बहाना बनाते हुए उसे स्कूल जाने नहीं दिया।
घर और खेत की पूरी जिम्मेदारी बचपन में उसके उपर डाल दी गई, पिता दिल्ली में काम
करता है और पूरे परिवार से उनका कोई वास्ता नहीं, बड़े भाई ने शादी कर ली तब से घर
में बस कलेश ही कलेश बना हुआ है – उसकी जिम्मेदारी कम होने की जगह बढ़ती ही गई ऐसे
में अगर वो घर से बाहर कुछ समय निकल जाए और किसी से दो बातें कर ले क्या इसमें कुछ
बुरा है? शायद नहीं लेकिन समाज यहां भी उसपर इज्जत
का बोझ डाल देता है।
हमने उससे विस्तार में बात की, समझाया और
पूछा भी कि वो क्या समझती है और इस परिस्थिति में उसे क्या सहयोग चाहिए। एक और
किशोरी से बातचीत पर पता चला कि हमारे कार्यक्रम में आने वाली बहुत ही होनहार
लड़की के साथ उसके पिता और भाई मारपीट करते हैं क्योंकि सभी को लगता है कि उसका
किसी के साथ चक्कर चल रहा है। बहुत ही दुख की बात ये है कि गांव की पितृसत्तामक
सोच से लड़कियां भी बच नहीं पा रही क्योंकि इस किशोरी के मुंह से सीधे ये निकला कि
लड़कियां बिगड़ रही है, उनके पास फोन मिल रहे हैं और वो परिवार की इज्जत खराब कर
रही है – ये पूछने पर कि क्या उसने ऐसा देखा या किसी और ने देखा तो झट से जवाब आया
नहीं सभी कहते हैं, उसने भी कहा। अगर कोई लड़की दूसरी लड़की को ये बताती है कि
उसके साथ मारपीट हो रही है तो सहानुभूति की जगह उसके किरदार पर कैसे सवाल उठ रहा
है। जेंडर की दलदल इतनी मजबूत है कि हम कुछ भी करेंगे पर लड़कियों को घरों में सजा
धजा कर कैद करके रखेंगे ताकि वो पहले माता पिता में मुफ्त में सेवाएं दे और फिर
बाद में ससुराल में सबका बोझ उठाएं। इस तानेबाने को इतना अच्छे से बुना गया है कि
महिलाएं और लड़कियां इसे खुद बुनना चाहती है, गलती से कोई बाहर निकलना चाहे तो खुद
पहरेदार बनकर उसी लड़की को कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। ये हमारे लिए एक बड़ी
चुनौती है जहां हमें नारीवादी सोच और दोस्ती को बढ़ावा देना होगा ताकि इस
पितृसत्तामक रुपी जाल को भेद पाएं और आजादी की ओर कदम बढ़ा पाएं।
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