‘मुझे नहीं लगता हमारे समाज में सभी मानव बराबर हैं क्योंकि लड़का और लड़की में बहुत फर्क किया जाता है। लोग जाति के आधार पर भी भेदभाव करते हैं, कुछ लोगों को महज पैसे होने की वजह से कई मौके मिलते हैं जिनसे गरीब वंचित रह जाते हैं।’
फरवरी का महीना हमारे लिए काफी अहम है, क्योंकि भेदभाव और गैरबराबरी
के खिलाफ़ जिस आंदोलन की शुरुआत हमने की है वो फर्क लोग या तो देखना नहीं चाहते और
कई परिस्थितियों में देखकर भी नजरदांज कर देते हैं। ये जो मानसिकता है कि जब तक
मेरे साथ कुछ गलत नहीं हो रहा तब तक मैं कुछ क्यों करुं – ऐसा वही सोचते हैं जिनके
पास सत्ता है, विशेषाधिकार है और वो ऐसे तबके से हैं जहां लोगों के अधिकारों को
छीनकर पहुंचा जाता है। इस मानसिकता को चुनौती देने के लिए सबसे सटीक रास्ता है
युवाओं, किशोर-किशोरियों को जागरुक करना। इसी उद्देश्य को लेकर साहस फाउंडेशन ने अलीगढ़
के दादो स्थित स्कूल में मानवाधिकार को लेकर एक कार्यशाला का आयोजन किया जहां 70
किशोर-किशोरियों ने बढ़ चढकर हिस्सा लिया।
वर्कशॉप की शुरुआत एक संक्षिप्त परिचय, कुछ सहमतियों और उल्टा-पुलटा
खेल के साथ हुई। प्रतिभागियों ने खेल को खूब मजे से खेला और उनका सारा ध्यान क्लास
के अंदर आ गया। पहली एक्टिविटी में प्रतिभागियों से मानव की खुबियां पूछी गई, काफी
झिझक, थोड़ी-थोड़ी हंसी के बाद जवाब ऐसे रहे – जो बड़ों का सम्मान करता हो,
मेहनती, दिमाग का इस्तेमाल करने वाला, सही गलत में फर्क कर पाए, दूसरों से प्रेरणा
लेने वाला, अपने से छोटों का मार्गदर्शन कर पाए, गलतियों को समझने और सुधारने वाला,
मेहनती – कर्म करने वाला, जो दूसरों से भेदभाव न करें, देशभक्ति और अच्छे संस्कार
करने वाला।
भारत में मौजूद समय में देशभक्ति और धर्म के नाम
पर लोगों को गुमराह किया जा रहा है ऐसे में हमने छात्रों से देशभक्ति और
संस्कार के असल मायनों पर परिचर्चा की – मसलन की उनके हिसाब से देशभक्ति क्या
है, अच्छे संस्कारों का क्या मतलब है, जब आपको कोई संस्कारों की दुहाई देता है तो
क्या आप सही गलत में फर्क कर पा रहे हैं? क्या आप सवाल पूछ पा रहे हैं या फिर अंधभक्ति के रास्ते पर चल रहे हैं।
इसी चर्चा को आगे बढ़ाने के लिए छात्र-छात्राओं से पूछा कि इन
खूबियों के लिए एक मानव को क्या क्या चाहिए? – बड़े लोगों का साथ, शिक्षा, सम्मान, आर्थिक सहयोग,
अन्न/खाने का अधिकार, अनुभव, खुल का जीने का अधिकार इत्यादि।
मनुष्यों के अधिकारों को समझने के सफर आगे बढ़ाते हुए हमने
प्रतिभागियों को 6 लोगों के समूहों में बांटा। जैसे कि अक्सर कक्षाओं में देखने को
मिलता है – पहली लाइन में केवल लड़कियां बैठी हुई थी, दूसरी और तीसरी लाइन में
केवल लड़के थे। कक्षा में जेंडर का विभाजन साफ तौर पर दिख रहा था, एक तरह की
असहजता भी महसूस हो रही थी – ऐसे में हमने सोचा कि क्यों न परिस्थिति को थोड़ा
बदला जाए। इसी को लेकर हमने लड़के और लड़कियों को मिलकर समूह बनाया और उन्हें दिए
गए सवाल पर चर्चा करने के लिए प्रोत्साहित किया।
जाहिर सी बात है कि ऐसे माहौल से वो अनजान हैं जहां छात्र-छात्राओं को
एक गोले में बिठाकर चर्चा के लिए कहा जाए, या फिर लड़के और लड़कियां बैठकर एक
दूसरे के साथ मिलकर सीख सकते हैं। छोटे समूह में चर्चा शुरु होने से पहले काफी
हो-हल्ला हुआ, झिझक दिखी, शर्माने वाली हंसी और डेस्क में सिर छिपाने जैसी बातें
हुई। जब दो-तीन किशोरों ने लड़कियों के साथ चर्चा करने से मना करा तो हमने कारण
पूछा, डरते हुए उनमें से एक ने कहा कि अगर हम लड़कियों के साथ बात करेंगे तो बाकी
लड़के मजाक उठाएंगे और बाद में परेशान करेंगे। कुछ समय तक मचे इस कोलाहल के बाद
सभी समूह एक दूसरे से चर्चा करते हुए नजर आए।
दो सवालों पर हुई चर्चा के कुछ अहम बिंदू इस प्रकार हैं –
‘एक मानव होने का मतलब है कि एक दूसरे के साथ भेदभाव
नहीं करें, लड़का और लड़की के साथ एक समान व्यवहार होना चाहिए। मुश्किल से भरे
जीवन वो होता है जब पढ़ने नहीं दिया जाता है, अच्छी बातों से ध्यान हटता है।’
‘जातिगत भेदभाव नहीं करना चाहिए। हमारे पास मौका है कि
हम पढ़ लिखकर अपने देश की सेवा करें।’
‘खुशी से जीवन जीने के लिए आर्थिक स्थिति मजबूत होनी
चाहिए, नौकरी होनी चाहिए और परिवार।’
‘मानव होने का अर्थ है कि हमें सभी मनुष्यों की इज्जत
करनी चाहिए चाहे वो अमीर हो या गरीब हो लेकिन हमें किसी मानव में भेदभाव नहीं करना
चाहिए। मुझे लगता है कि सभी मनुष्य बराबर है कहीं न कहीं सबमें कुछ न कुछ फर्क
होता है।’
‘सभी मानव बराबर नहीं होते हैं। क्योंकि कुछ लोग अमीर
होते हैं और कुछ गरीब। अमीर लोग गरीबों पर अत्याचार करते हैं, गरीबों पर दबाव
डालते हैं। सभी मनुष्यों की इज्जत करनी चाहिए जो लोग गलत रास्ते पर चलते हैं
उन्हें भी सही रास्ता दिखाना चाहिए। मानवों में एकता होना बेहद जरुरी है।’
मानव की खूबियों, जरुरतों और प्रतिभागियों की चर्चा से निकले बिंदुओं
को मिलाते हुए ये समझ बनाई गई की एक मानव को गरिमा, आत्मविश्वास और खुशहाली से भरी
जिंदगी जीने के लिए कुछ अहम चीजों की जरुरतें होती है और ये हमारे अधिकारों से
जुड़ी हुई हैं।
सत्र में आगे बढ़ते हुए अधिकार शब्द पर माइड मैपिंग की गई जिसमें
अधिकार शब्द के मायने निकल कर आए – ‘दूसरों
के अधिकार नहीं छीनना, खुलकर बोलने का अधिकार, अपने मुताबिक जिंदगी जीने का
अधिकार, देखने और सुनने का अधिकार, शिक्षा का अधिकार और अपने जीवन के फैसले लेने
का अधिकार।’
इस वर्कशॉप में 8वीं और 9वीं के छात्र-छात्राएं हिस्सा ले रही थी,
7वीं की क्लास का फ्री पीरियड था, ऐसे में कुछ किशोरी हमारी क्लास में आकर बैठ गई
थी, उन्हीं में से एक ने कहा कि अधिकार का मतलब है कि वो अपने जीवन से जुड़े
फैसलें खुद ले पाएं, ऐसा अधिकार लड़कियों के पास होना चाहिए।
हम सभी ने आगे बढ़कर मानवाधिकार की परिभाषा तय की जहां प्रतिभागियों
ने कहा कि उनके लिए मानवाधिकार का मतलब है कि उनके पास शिक्षा का, जीने का और
समानता का अधिकार होना ही चाहिए।
मानवाधिकार के सत्र खुशीपुरा गांव की किशोरियों और बाकी स्कूलों की
छात्राओं के साथ करने के बाद ये स्कूल पहला ऐसा रहा जहां छात्राओं के मुकाबले
लड़के ज्यादा थे, एक असहजता थी लड़कियों और लड़कों के बीच में, इसके साथ साथ
अध्यापकों के व्यवहार में भी शक और असहजता साफ दिख रही थी। ग्रामीण अंचल की बात
करें तो किशोरियों के लिए उनके पिता और भाई पहले पुरुष होते हैं जिनके साथ वो घर
में रहती है, दोनों से अनुमति का रिश्ता है। जहां पिता और भाई से कुछ बात नहीं
होती पर वो उसके जीवन के सभी फैसले यहां तक कि वो घर से बाहर जाएगी या नहीं वो भी
तय करते हैं। ऐसे में जब किशोरी स्कूल जाती है जहां हर टीचर पुरुष होते हैं तो वो
और डर जाती है, यहां भी अनुमति का रिश्ता बन जाता है और संवाद नहीं होता। ऐसे में
जेंडर की ये खाई बढ़ती ही नजर आती है।
बड़े बड़े पोडियम और कार्यशालाओं में जब जेंडर की बात होती है, जेंडर
से जुड़े कार्यों की बात होती है तो कहा जाता है कि अध्यापक ज्यादातर महिलाएं होती
है, क्योंकि स्कूल 2 बजे खत्म हो जाता है और महिलाएं इसके बाद घर का काम करेंगी।
लेकिन उत्तर प्रदेश और झारखंड दोनों ही जगह काम करके कुछ और ही नजर आया है। यहां
ज्यादातर अध्यापक पुरुष होते हैं और एक्का दुक्का टीचर ही महिला होती है – क्यों? वो इसलिए क्योंकि जहां लड़कियों को घर से निकलने नहीं
दिया जाता है, पढ़ने नहीं दिया जाता, ज्यादा से ज्यादा 8वीं की पढ़ाई के बाद रोक
दिया जाता है वहां अध्यापिका की पोस्ट तक वो कैसे पहुंच पाएंगी? ऐसे में जेंडर और सामाजिक वर्ग की साझेधारी दिखाई दी।
पहली बार इस स्कूल में आयोजित कार्यशाला में छात्र-छात्राओं का उत्साह
तो दिखा ही साथ ही आने वाली कार्यशालाओं के लिए मंच भी तैयार हो गया।
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