अधिकारों और गैरबराबरी की जंग में कई बातें, मुद्दे और किस्से सामने आते हैं जो जहन पर काफी प्रभाव तो डालते ही है साथ ही सोचने पर और लगातार सवाल उठाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। भारत में और विश्व में मौजूदा परिस्थितयों ने जहां मानवाधिकार की परिभाषा और पैदाइश पर सवाल खड़े कर दिए हैं वहीं हमें अपने संविधान और मूल्यों को एक बार फिर आत्मसाध करने के लिए आह्वान किया है। सामाजिक अध्ययन की किताबों में संविधान और मौलिक अधिकार महज एक चैप्टर बनकर न रह जाए, बल्कि भारतवासी संवैधानिक मूल्यों की अहमियत और समानता लाने के आंदोलन में इसकी जरुरत को समझ पाएं और अपने जीवन में उतार पाएं। इसी सोच को लेकर साहस फाउंडेशन ने खुशीपुरा गांव में साहसी गर्ल्स के साथ ‘मेरे मौलिक अधिकार’ पर कार्यशाला का आयोजन किया।
वर्कशॉप की शुरुआत हमने ‘भेड़ और भेड़िया’ के खेल
के साथ की जहां लड़कियों के साथ साथ हमारी टीम मेम्बर सरला जी ने भी खुलकर भाग
लिया। आगे बढ़ते हुए किशोरियों को 6 समूहों में बांटा गया और एक-एक परिस्थिति दी
गई – जहां उन्हें आपस में परिस्थिति को समझना था, सोचना था कि क्या यहां किसी के
अधिकार छीने जा रहे हैं अगर हां तो कौन से।
पहले सवाल के जवाब में प्रतिभागियों ने कहा –
‘किसी भी वजह से अगर लड़की को पढ़ाई छोड़नी पड़
रही है और घर के काम काज करने के लिए विवश होना पड़ रहा है तो वहां उसकी पढ़ाई का
अधिकार और समानता का अधिकार छीना जा रहा है।’
‘अगर लड़की के साथ साथ घर के काम काज में लड़का भी
सहयोग देता तो शायद लड़की को पढ़ाई छोड़ने की जरुरत ही नहीं पड़ती। अक्सर घरों में
लड़कियां ही काम करती है जो सही नहीं है।’
‘गांववालों को उसकी मदद करनी चाहिए, अगर होशियार
होते हुए भी उसे पढ़ाई छोड़कर कामकाज करना पड़ रहा है तो ये सही नहीं है। आर्थिक स्थिति सही नहीं होने की वजह से उसे काफी
मुश्किलों का सामना करना पड़ा। गांववाले उसके साथ जाति को लेकर भेदभाव करते हैं
यानि उसे समानता का अधिकार नहीं मिल रहा है।’
पिछले 3 सालों से लगातार हम खुशीपुरा गांव की
किशोरियों के साथ काम कर रहे हैं – नतीजन धीरे धीरे वो अपने जीवन में और आसपास
जेंडर गैरबराबरी को देख पा रही हैं, उसे समझ पा रही हैं – ये सफर काफी मुश्किलों
भरा रहा है क्योंकि जेंडर हमारे जीवन में ऐसे रसबस गया है कि गैरबराबरी जीवन का
हिस्सा लगने लगती है और सही गलत समझने का मौका दिए बिना ही परिस्थिति स्वीकृत हो
जाती है। वहीं जाति और धर्म आधारित गैरबराबरी को समझना थोड़ा और जटिल है – ये गांव
यादव बहुल गांव है और कुछ को छोड़कर किशोरियां कभी गांव से बाहर ही नहीं गई है।
लेकिन मौलिक अधिकारों पर बातचीत ने उस गैरबराबरी को समझने की नींव डाल दी है।
प्रतिभागियों के जवाबों, स्कूली छात्रों द्वारा
बनाया गया मौलिक अधिकारों पर वीडियो और चार्ट पेपर के जरिए हमने संविधान और उसमें
दिए गए मुख्य 6 अधिकारों पर चर्चा की। इस चर्चा का मकसद महज अधिकारों के नाम और
उनकी परिभाषा याद करना नहीं बल्कि निजी जीवन में ये अधिकार कैसे दिखते हैं पर समझ
बनाना रहा। आखिर में ग्रामीण परिपेक्ष्य और मौलिक अधिकारों को लेकर एक 5 मिनट का
वीडियो दिखाया गया। इस वीडियो को देखकर अधिकारों पर समझ और मजबूत हुई।
वर्कशॉप में अब समय तक एक बेहद मजेदार खेल का,
किशोरियों को भी इस बात का अंदाजा नहीं था कि अब आगे क्या होने वाला है। बच्चे
अक्सर सांप सीड़ी का खेल खेलते हैं वहीं महिला हिंसा पर काम करने वालों ने भी इस
खेल के जरिए हिंसा पर समझ बनाने की कोशिश की है। तो हमने सोचा क्यों न इस खेल का
इस्तेमाल अधिकारों पर समझ बनाने के लिए किया जाए। सीड़ी के निचले छोर पर वो बातें
थी जहां अधिकार मिल रहे हैं वहीं सांप के मुंह पर वो परिस्थितियां लिखी थी जहां
अधिकार छीने जा रहे हैं या फिर उनका उल्लघंन हो रहा है। इस खेल में बाकी सभी को ये
तय करना था कि कौन सा मौलिक अधिकार मिल रहा है या छीन रहा है। सांप सीढी के खेल
में जीतने का जज्बा तो था ही साथ में कौन अधिकारों को पहचान पा रहा है उसका जोश भी
दिखा है।
‘थोड़ी देर और खेलने दो दीदी, क्योंकि हमने अभी तक
सभी सीढियों और सांप पर लिखी परिस्थितियां नहीं पढ़ी है।’
‘साहसी गर्ल्स में हमें सभा करने का, खेलने का और
जानकारी हासिल करने का अधिकार मिलता है।’
कार्यशाला के बाद सभी किशोरियों ने पहली बार गांव
में क्रिकेट खेला, बाद में सेनेटरी पैड बांटा गया और आखिर में लड्डू खाते हुए ऐलान
किया कि अगली बार उन्हें समोसे और बड्डे मिलने चाहिए।
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