“तुम बिलकुल चिंता मत करो। ये तो
एक शारीरिक बदलाव है, कुछ नहीं होता। हम अगले बस स्टॉप पर उतरकर तुम्हारे लिए
सैनेटरी पैड खरीद लेंगे।”
पानीपत के हाली अपना स्कूल के किशोर-किशोरियों
के साथ जेंडर, यौनिकता और प्रजनन स्वास्थ्य कार्यक्रम का तीसरा सत्र “महावारी
क्या होती है?” पर आधारित रहा। पिछले सत्र ‘शारीरिक बदलाव’ के दौरान महावारी और शरीर में होने
वाले दर्द को लेकर कुछ बात हुई थी। किशोरावस्था के दौरान महावारी लड़कियों में होने
वाला सबसे अहम शारीरिक बदलाव होता है, इसके साथ ही इस बारे में पिछले सत्र में हुई
चर्चा को आगे बढ़ने और किशोर-किशोरियों को एक साथ इस बदलाव के बारे में जागरुक
करना बहुत जरुरी था।
हमने ‘ट्रेन गेम’
के साथ सत्र की शुरुआत की। पहली गतिविधि में उन्हें एक सैनेटरी पैड दिखाकर पूछा गया
कि क्या प्रतिभागियों ने कभी इसे देखा है, ज्यादातर ने हां में जवाब दिया- कुछ ने
इसे टीवी में आने वाले विज्ञापन में देखा तो कुछ ने अपने घरों में तो कुछ ने इसका
इस्तेमाल किया है।
इसके बाद एक चार्टपेपर पर तीन सवाल लिखे गए थे
जिनमें से एक अहम सवाल ये रहा कि इस पैड को देखकर या इस्तेमाल करके आपको कैसा लगा-
यहां कई भावनाएं लिखी गई थी- ज्यादातर प्रतिभागियों ने शर्म आना, घबराहट होना और
गंदा लगने पर निशान लगाया, जाहिए है जानकारी के अभाव में ये तीनों भावनाएं अपने
शीर्ष पर होती है। इसके बाद प्रतिभागियों को ‘हैलो पीरियड्यस’ फिल्म दिखाई गई जहां किशोरावस्था में होने वाले बदलाव, महावारी क्या होती
है, क्यों होती है, महावारी का होना लड़कियों के लिए क्यों जरुरी होता है, सैनेटरी
पैड क्या है, इसका कैसे इस्तेमाल करना चाहिए, महावारी के दौरान साफ-सफाई की बातों
पर विस्तार से चर्चा की गई।
वीडियो में दिखाई गई बातों की समझ मजबूत हो
इसलिए चार्टपेपर के जरिए सभी बातों को संक्षेप में लिखा गया और एक बार फिर दोहराया
गया। हमारे समाज में महावारी को महज एक शारीरिक बदलाव के तौर पर नहीं देखा जाता
है, इससे जुड़ी कई मिथक बातों का आज भी बोल बाला है जिसकी वजह से महावारी पर खुलकर
बात नहीं की जाती है और इसके एक सामाजिक धब्बे के तौर पर देखा और समझा जाता है। इसी
बात को ध्यान में रखते हुए इन मिथक बातों पर प्रतिभागियों की सहभागिता के साथ
माइंड मैंपिग की गई- जैसे महावारी के दौरान मंदिर या किसी धार्मिक जगहों पर जाने
की पाबंदी, किचन में नहीं घुसना है, बाल नहीं धोने हैं, आचार नहीं खाना है, खट्टी
चीजों से परहेज करना है, और हां लड़कों से मेलजोल बिलकुल कम कर देना है जैसी बातें
सामने आई। इसके साथ ही हमने भारत के अलग अलग जगहों पर महावारी को कैसे देखा जाता
है- जैसे दक्षिण भारत के कुछ जगहों पर लड़कियों की पहली महावारी को एक उत्सव की
तरह मनाया जाता है क्योंकि इसके बाद वो गर्भवती हो सकती है, वहीं पूर्वी भारत में
लड़कियों को तबले में रखा जाता है क्योंकि उन्हें अपवित्र माना जाता है, कई जगहों
पर सैनेटरी पैड नहीं होता तो उन्हें उपले इस्तेमाल करने को कहा जाता है इत्यादि।
इसी बातचीत में हमने महावारी और
पवित्रता-अपवित्रता के भ्रम को भी तीलांजली दी।
“दीदी लड़कियां महावारी की वजह से
कैसे अपवित्र हो सकती है। ये तो एक शारीरिक बदलाव ही है जैसे हमारी दाढ़ी आता,
आवाज़ भारी होना। इसके साथ ही वो आनेवाले जीवन में एक नए शिशु को जन्म दे सकती है,
ये तो गलत है” एक प्रतिभागी ने कहा।
चेहरे पर खुशी के भाव आ गए, ये ही तो हमारी मंशा
है कि महावारी से जुड़ी सामाजिक भ्रांतियों पर चर्चा की जाए और इसे ध्वस्त किया जा
सके। अब एक अहम सवाल ये कि ये बदलाव तो लड़कियों में होता है, तो इसकी जानकारी
लड़कों को क्यों दी जा रही हैं, इनसे लड़कों का क्या वास्ता?
“ताकि अगर कभी किसी लड़की को
महावारी हो रही हो, या हमारे परिवार में मां या बहन को हो रही हो तो हम उनकी मदद
कर सकते हैं।”
“आपने तो कहा कि इस बारे में
जानकारी कम है, तो हम बाकी लड़कियों को इस बारे में जागरुक कर सकते हैं।”
“इस दौरान लड़कियों को काफी दर्द
होता है, तो दर्द से कैसे निपटे वो बता सकते हैं।”
“ये बदलाव लड़कियों के लिए ज्यादा
अच्छा अनुभव नहीं होता, अगर हमें इस बारे में पता नहीं होता तो शायद हम उनका मज़ाक
उड़ाते पर अब हमें पता है तो हम उनकी जैसे वो चाहे मदद कर सकते, और हां मज़ाक तो
बिलकुल नहीं बनाएंगे”
एक लम्बी गहरी सांस की जरुरत जरुर पड़ी इस
वक्त...कोई सोच सकता है कि 12-14 साल के लड़के इस तरह की बातचीत करेंगे वो भी
महावारी पर आधारित चर्चा के दौरान? क्योंकि आज भी हम अपने आसपास
व्यस्क लोगों को इस बारे में चुप्पी साधे हुए ही देखते हैं।
खैर आगे बढ़ते हुए सभी प्रतिभागियों को चार समूह
में बांटा गया जहां उन्हें महावारी से जुड़ी एक परिस्थिति दी गई और उन्हें उसे
आधार बनाकर अपनी समझ को नाटक के जरिए प्रस्तुत करना था। चारों समूहों ने एक से
बढ़कर एक नाटक प्रस्तुत किए।
पहले समूह में – एक लड़का और एक लड़की बस में जा
रहे हैं, जहां लड़की के स्कॉर्ट पर लाल दाग लग जाता है। उसे समझ में आता है कि उसे
महावारी शुरु हो गई है, ऐसे में वो घबरा जाती है। पर उसके साथ मौजूद लड़का उसे न
केवल शांत करता है बल्कि अगले बस स्टॉप पर उतर कर उसे सैनेटरी पैड खरीदकर भी देता
है। वहीं दूसरी लड़कियों भी उसके साथ खड़ी हो जाती है।
दूसरे समूह में एक स्कूल और घर का दृश्य दिखाया-
जहां एक विद्यार्थी को महावारी शुरु हो जाती है, तो टीचर उसे घर भेज देती है। घर
पहुंचते ही लड़की रोने लगती है और अपनी मां को सब बताती है, मां उसे बहुत प्यार से
समझाती और महावारी की जानकारी देती है। इसी दौरान उसके पिता घर पर आते हैं, उसे
भला बुरा सुनाते हैं, साथ ही कहते हैं कि वो अपवित्र है और वो किचन और पूजा की जगह
नहीं जा सकती है। ऐसे में लड़की की मां न केवल उसके पिता को फटकार लगाती है बल्कि
उन्हें भी समझाने की कोशिश करती है।
तीसरे समूह में महावारी के दौरान पवित्रता और
अपवित्रता के बारे में बातचीत करते हुए दिखाया।
चौथे समूह ने दिखाया कि कैसे महावारी के दौरान
भी फुटबॉल जैसा खेल खेला जा सकता है।
इन नाटकों को देखकर मन में एक नई उमंग भर गई
क्योंकि इस जानकारी से न केवल इनके जीवन में बदलाव आएगा बल्कि ये अपने आसपास के
समाज में भी बदलाव की बूंदे बिखेरने के काबिल भी हैं।
सत्र के समाप्त होने से पहले जब हमने महावारी
क्या होती है का सवाल किया तो एकदम से दोनों लड़के और लड़कियों के हाथ उठे- एक
प्रतिभागी ने बड़े ही सरल तरीके से महावारी की पूरी प्रक्रिया को समझाया। और हां
मैं बहुत बहुत ही गर्व महसूस कर रही थी। इसके बाद प्रतिभागियों से एक प्रश्नावली
के उत्तर हां या न में भरने के लिए आमंत्रित किया गया।
इस सत्र में कई अहम बातें हुई लेकिन मेरे लिए ये
सत्र हमेशा से बहुत जरुरी रहा है क्योंकि महावारी की वजह से लड़कियों में एक तरह
की हीन भावना घर कर जाती हैं, उन्हें लगता है कि महीने के इस दौरान वो अपवित्र
होती है, वो खुद ब खुद कुछ चीजों को करने से परहेज करने लगती है, किशोरियों को
महावारी शुरु होते ही लड़कों से दूर रहने के लिए कह दिया जाता है जिससे जीवन भर की
बिना दिखने वाली बेड़ियां बन जाती है- इस दो घंटे के सत्र के जरिए हम आज कई
बेड़ियों को तोड़ने और कुछ बेड़ियों को बनने से पहले ही ध्वस्त करने में कामयाब
रहे :-)
No comments:
Post a Comment