“तुम लड़के हो इसलिए सीना तान कर चलो”
“तुम लड़की हो तो सिर झुकाकर नज़रे नीचे करके चलो”
किशोरावस्था में होने वाले शारीरिक, मानसिक,
मनोवैज्ञानिक बदलावों के साथ साथ किशोर-किशोरियों को समाजिक बदलावों से भी रुबरु
होना पड़ता है। और इस बदलाव का असर उनके ज़हन पर सबसे ज्यादा असर करता है, ऐसा
इसलिए क्योंकि असमंजस और सवालों से भरी इस उम्र में उन्हें क्या करना चाहिए, कैसे
रहना चाहिए, कैसे नहीं से, साथ ही जेंडर और यौनिकता को लेकर पहले से बनाए ढांचों
में फिट करने की कोशिश और तेज हो जाती है। इससे पहले वो कुछ समझ पाए समाज की
अनदेखी और अनसुनी मजबूत बेड़ियां उन्हें जकड़ने के लिए पूरे जोर से तैयारी कर लेती
है। ऐसे में किशोरावस्था में ही जेंडर और जेंडर आधारित भेदभाव की समझ बनाना और
जरुरी हो जाता है।
पानीपत के हाली अपना स्कूल के विद्यार्थियों के
साथ पांचवा सत्र “जेंडर: लड़का, लड़की होने
के क्या मायने हैं?” पर आधारित रहा। एक मज़ेदार उलटा पुलटा खेल के साथ सत्र की
शुरुआत की गई।
पहली एक्टिविटी “चिट गेम” में प्रतिभागियों को एक एक
पर्ची बांटी गई जिसमें अलग-अलग काम, रोजगार, ज़िम्मेदारियां इत्यादि लिखी गई। इसके
पहले भाग में प्रतिभागियों को पर्ची में लिखी बात के मुताबिक ये फैसला करना था कि
ज्यादातर ये काम लड़के करते हैं या लड़कियां और उसी हिसाब से दो अलग अलग लाइनें
बनाने के लिए कहा गया। एक्टिविटी के दूसरे चरण में एक बार फिर उन्हें पर्ची पर
लिखे काम के मुताबिक तीन लाइनें बनानी थी- एक जो सिर्फ लड़के कर सकते हैं, दूसरी
जो सिर्फ लड़कियां कर सकती हैं और तीसरी जो लड़का और लड़की दोनों कर सकते हैं।
लाइनें बनाने के बाद प्रतिभागियों को उस पर्ची में लिखे कार्य को पढ़कर ये बताना
था कि वो इस लाइन में क्यों खड़े हैं। एक्टिविटी में चर्चा करते करते- लड़कों की
लाइन एकदम खाली हो गई, लड़की की लाइन में केवल गर्भवती होना रह गया और तीसरी लाइन
में सभी प्रतिभागी आ गए। जिसके बाद सभी प्रतिभागी हैरान रह गए और अचरच की हंसी
हसने लगे।
चिट गेम के बाद प्रतिभागियों को 6 अलग अलग समूह
में बांटा गया और उनसे उनके लड़का होने या लड़की होने की वजह से मिले संदेश सांझा
करने को कहा गया-
लड़के होने की वजह से मिले संदेश-
“लड़कों को लड़कियों की तरह नहीं रोना चाहिए”
“अगर लड़के धीमी आवाज़ में बोले, या उनकी आवाज़
पतली होती है, तो उन्हें बुलंद आवाज़ में बोलने को कहा जाता है”
“लड़कियों के साथ खेलने को मना किया जाता है”
“लड़कियों के जैसे खड़े मत हो, लड़कियों के साथ
हंसी मज़ाक मत करो”
“लड़कियों की तरह मत चला करो, लड़कियों की तरह मत
शर्माओ, लड़कियों की तरह बात मत किया करो”
“जैसे की हम लड़के हैं तो हम लड़कियों के कपड़े
जैसे स्कॉर्ट, सूट सलवार नहीं पहन सकते”
“लड़कियों के जैसे बाल नहीं रखना चाहिए”
“लड़कियों के साथ नहीं घूमना चाहिए”
“बड़ी बहन कहती है कि भाई तू लड़कियों की तरह मत
रोया कर”
“लड़कियों की तरह घबराया मत करो”
“लड़के हो तो ऊंची आवाज़ में बात किया करो,
लड़कों के साथ ही खेला करो”
“मुझे घर में काम करने के लिए मना किया जाता है”
लड़कियों को मिले संदेश-
“लड़कों के जैसे कपड़े निकर, पैंट टी शर्ट नहीं
पहनना चाहिए”
“लड़कों के साथ मत खेला करो, लड़कों के खेल जैसे
क्रिकेट मत खेलो”
“लड़की होतो सूट सलवार पहनो, चुन्नी लो”
“जैसे ही हम इस उम्र में आते हैं तो घर के काम
करने पड़ते हैं, और हमें स्कूल जाने से भी रोका जाता है”
“हमें बाहर घूमने से मना किया जाता है, लड़कों से
बात करने के लिए मना किया जाता है”
“लड़कियों को लम्बे बाल रखने चाहिए”
“रात या शाम को बाहर मत जाओ, देर तक मत खेलो,
लड़कों की तरह ऊंची आवाज़ में बात मत करो”
जब ये संदेश प्रतिभागी पढ़ रहे थे तो मेरे सीने
में चुभन हो रही थी, ऐसा लग रहा था कि लड़की होना कोई बहुत बुरा अभिशाप है, एक
गाली जैसा लग रहा था, कि कैसे लड़कों को बार बार लड़कियों जैसे ये मत करो, वो मत
करो कहा गया जैसे वो काम बहुत गिरा हुआ है। वहीं लड़कियों पर हर तरह की पाबंदी
लगाई जा रही है। ऐसे में जब कोई शख्स कहता है कि हमारा समाज बदल रहा है, अब जेंडर
आधारित फर्क उतना दिखता नहीं तो मुझे उसकी अक्ल और सोच दोनों पर हंसी आती है
क्योंकि यहां 12-14 साल की बच्चे अपने आप को जेंडर के दायरे में बंधा पा रहे हैं
और समाज अपने ही बबल में खुश है। तो हां अभी बहुत फर्क हैं और बहुत काम करना है
ताकि इस मानसिकता को जड़ से निकाल फेंका जाए।
इसके बाद कानाफूसी के खेल और जेंडर की कहानी के
जरिए जेंडर क्या है, क्यों है, इसका हमारे जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है और हम इसे
चुनौती दे सकते हैं पर समझ बनाई और इसपर विस्तार से चर्चा की गई।
सत्र के अगले और आखिरी भाग में प्रतिभागियों को
4 समूहों में बांटा गया, हर समूह को एक स्थान मसलन घर, स्कूल, दोस्तों के साथ और
सार्वजनिक जगह दी गई और उन्हें यहां जेंडर फर्क को पहचानने और समझने के लिए
आमंत्रित किया गया।
समूह की चर्चाओं के कुछ अहम बिंदू निम्नलिखित
हैं-
घर-
“मम्मी खाना बनाती है, अगर
वो बीमार हो तो भी उन्हें ही खाना बनाना पड़ता है, या फिर बहन खाना पकाती है। घर
का काम जैसे साफ-सफाई, कपड़े धोना, घर की देखभाल, बुजुर्गों की देखभाल भी मां ही
करती है”
“पापा नौकरी करते हैं, घर का सारा खर्च वो ही
देते हैं। घर में कोई चीज कम हो, खत्म हो जाए या फिर कुछ और तो भी पापा ही बाज़ार
जाते हैं”
स्कूल-
“स्कूल में लड़के और लड़कियां अलग अलग बैठते हैं”
“लड़के और लड़कियों के खेल भी अलग अलग होते हैं”
“गलती करने पर लड़के और लड़कियों को अलग अलग सज़ा
दी जाती है”
“जब भी स्कूल में कोई काम जैसे कुर्सी उठाना,
भागदौड़ का काम करना तो उसके लिए हमेशा लड़कों को बुलाया जाता है”
“स्कूल में कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम होता है तो
लड़कियों को बुलाया जाता है। कार्यक्रम के कामों में भी लड़के और लड़कियों का फर्क
होता है”
दोस्तों के साथ-
“लड़कियां बैडमिंटन, खोखो, छुप्पन छुपाई जैसे खेल
खेलते हैं। हम अपने ग्रुप में लड़कों के बारे में भी बातें करते हैं जैसे वो लड़का
कितना काला है, वो मुझे पसंद नहीं है, ये लड़का स्मार्ट है और ये मुझे पसंद है”
“लड़के क्रिकेट, फुटबॉल, वॉलीबॉल जैसे खेल खेलते
हैं। लड़के भी अपने ग्रुप में लड़कियों के बारे में बात करते हैं।”
“असल में देखा जाए तो लड़के और लड़कियों की
बातचीत और सोच काफी हद तक एक जैसी होती है। पर उनके रहनसहन, खेलकूद और आचार विचार
में समय के साथ फर्क आ जाता है”
सार्वजनिक जगह-
“ज्यादातर बाज़ार, सब्जी मंडी में लड़कियां नहीं
दिखती क्योंकि उनके परिवारवाले उन्हें बाहर नहीं जाने देते”
“पार्क में भी ज्यादातर लड़के ही खेलते नज़र आते
हैं क्योंकि लड़कियों को बाहर नहीं खेलने दिया जाता”
“दुकानों पर लड़कियों को नहीं बैठने दिया जाता है
क्योंकि सभी को लगता है कि अगर लड़की दुकान पर बैठेगी तो दुकान पर लड़के ज्यादा
आएंगे, सामान खरीदने कम पर लड़की को देखने ज्यादा”
“सड़क पर लड़के ही ज्यादा होते हैं, लड़कियों को
घर से बाहर निकलने ज्यादा नहीं दिया जाता क्योंकि अगर वो ज्यादा बाहर जाएंगी तो
लड़के उन्हें छेड़ेंगे”
“बस स्टैंड पर, बसों में, कार भी लड़के ही चलाते
हैं । क्योंकि अगर एक लड़की बस चलाती है तो बुजुर्ग कहते हैं कि ये काम लड़कों का
है और लड़कियों को ये सब नहीं करना चाहिए”
“कंचों का खेल और कई खेलों को खेलने से लड़कियों
को ये कहकर रोक दिया जाता है कि ये सभी खेल लड़कों के हैं और लड़कियों को ये सब
नहीं करना चाहिए”
जेंडर और जेंडर आधारित फर्क पर हुई ये चर्चा
काफी आंखे खोलने वाली रही, क्योंकि अबतक हमने 100 से ज्यादा किशोर-किशोरियों के
साथ ये सत्र किया है लेकिन यहां जो बाते सांझा की गई वो बहुत गहन थी, काफी सोचने
वाली और झकझोरने वाली। राहत सिर्फ इस बात की है कि अब इन किशोर-किशोरियों को पता
है कि उनका लड़का होना या लड़की होना उनके सपनों, आकंशाओं, या उनकी ताकत का फैसला
नहीं कर सकता, उन्हें इस सामाजिक ढांचे की जानकारी हो गई है और प्रतिभागियों की
बात से ये साफ है कि वो इस झूठे ढांचे को चुनौती देने के लिए तैयार हैं
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