“जब से मैंने होश संभाला है तब से
महिला शब्द सुनकर खाना बनाना, घर संभाला, दूसरों का ख्याल रखना और पुरुषों का मतलब
ताकतवर, नौकरी करना ही सुनाई और दिखाई दिया लेकिन इन दो दिनों में जो चर्चा हुई और
आपने जेंडर की कहानी बनाकर एक दूसरा आईना दिखाया, ऐसे मुझे कभी किसी ने नहीं
समझाया। अब मैं दूसरे पहलू को भी देख पा रहा हूं और हां आज तक जो जेंडर आधारित
फर्क दिखा वो किसी कानाफूसी से कम नहीं है। अब मैं उस फर्क को अपनी जिंदगी से अलग
करना चाहता हूं”
“मेरे दिमाग में एक और बात आई है,
हम लोग काफी सोशल मीडिया यानि फेसबुक और वट्सएप्प का इस्तेमाल करते हैं, जिसमें कई
ग्रुप का हिस्सा हूं, वहां जेंडर आधारित किस्से और मजाक के तौर पर महिलाओं के बारे
में अभद्र और अश्लील बातें लिखी और फोवर्ड की जाती है, आगे से मैं ऐसे संदेशों को
फोवर्ड नहीं करुंगा और भेजने वाले से एक बार इस बारे में जरुर बातें करुंगा। अगर
बाकी प्रतिभागी भी ऐसा करना चाहते है तो वो आगे हाथ बढ़ाकर सहमति दिखाएं”
कुछ पलों के लिए मैं एकदम अचरच में पड़ गई थी,
मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि उज्जैन में 50 पुलिसकर्मियों के साथ जेंडर, हिंसा
और सत्ता पर आधारित वर्कशॉप का कुछ ऐसा समापन हो रहा था। इन शब्दों और वादों ने
मेरे उस विश्वास को एक नई ऊर्जा से भर दिया था जिसके साथ मैंने साहस की शुरुआत की
थी।
साहस के जरिए हम तकरीबन 2 सालों में अलग अलग
समुदायों के किशोर-किशोरियों के साथ जेंडर, यौनिकता और प्रजनन स्वास्थ्य पर समझ
बनाने का काम कर रहे है, ऐसे में पुलिसकर्मियों के साथ जेंडर पर बातचीत एक कदम आगे
बढ़ने जैसा रहा। जेंडर और यौनिकता को लेकर अक्सर संस्थाएं महिलाओं और लड़कियों के
साथ बातचीत करते हैं, और इस बात का नज़रादांज करते हैं कि हम समाज में रहते हैं
जहां महिला, पुरुष समेत कई जेंडर और यौनिक पहचानें रहती हैं। मुझे लगता है कि शायद
ये भी एक कारण है जिसकी वजह से जेंडर आधारित हिंसा कम नहीं हो रही है क्योंकि
जेंडर भेदभाव और पितृसत्ता जितना लड़कियों को प्रभावित करता है उतना ही दूसरी
जेंडर पहचानों को भी करता है ऐसे में दोनों जेंडर पहचानों से बातचीत करना जरुरी
है। पुलिस के साथ दो दिन की वर्कशॉप ने इस सोच को तो पुख्ता किया ही साथ ही पुलिस
जैसे संस्थान जिनके पास सत्ता है उनके साथ बातचीत करके जेंडर आधारित हिंसा को
चुनौती देने के नए दरवाजें भी खोल दिए।
कार्यशाला की शुरुआत हमने अपने और संस्था के
परिचय से की, जिसके बाद सभी प्रतिभागियों को उनका नाम और एक खूबी बताने के लिए
आमंत्रित किया। ये देखने वाली बात की प्रतिभागियों को अपनी खूबी बताने में काफी
मुश्किल हो रही थी, लेकिन एक दो उदाहरण के बाद वो काफी सहज होकर अपनी विशेषताएं
बताने लगे उदाहरण के तौर पर किसी को कविताएं लिखना बहुत पसंद है, तो किसी को डांस
करना, तो किसी को एक्टिंग करना तो किसी को गाना इत्यादि। परिचय के बाद हमने सिक्के
का खेल खेला, फिर आने वाले 2 दिनों में होने वाली बातचीत के बारे में चर्चा करते
हुए कुछ बातों पर सहमति बनाई जैसे ध्यान से सुनना, खुलकर भाग लेना, समय, लोगों और
जगह का सम्मान करना और निजी जानकारी को लेकर गोपनियता बनाए रखना।
चिट एक्टिविटी के जरिए जेंडर पर आधारित कामों के
विभाजन, व्यवहार, सोच, विशेषताओं आदि पर रोशनी डाली। इसके बाद सभी प्रतिभागियों को
6 अलग-अलग समूहों में बांटा गया जहां हर एक को 3 ऐसे संदेश बांटने के लिए कहा गया
जो “उन्हें
लड़के होने की वजह से मिले है”। समूह में चर्चा करने के बाद
उन्हें बड़े गोले में कोई भी अहम 3 संदेश सबके साथ सांझा करने के लिए आमंत्रित
किया गया। कुछ बेहद अहम संदेश इस प्रकार है-
आवाज़ कड़क होनी चाहिए
कभी भी मार खाकर घर मत आना
क्या लड़की की तरह सज रहे हो
मर्द हो मर्दों के समूह में
बैठा करो
तुम लड़के हो अपनी
ज़िम्मेदारियों को समझना चाहिए
अपनी पत्नी को सर पर मत चढ़ाओ
तुम लड़के हो तुम्हें शर्माना
नहीं चाहिए
परिवार की सुरक्षा तुम्हारी
ज़िम्मेदारी है
लड़कों को शारीरिक तौर पर
मज़बूत होना चाहिए
खाना बनना तुम्हारा काम नहीं
है
लड़के ही वंश आगे बढ़ाते हैं
मेरे परिवार वाले हमेशा बोलते
है कि तुम घर में बहुत रहते हो, लड़के हो बाहर जाओ, दोस्तों के साथ घूमो, स्पोर्ट्स खेला करो
रोना तो लड़कियों का काम है
क्या लड़कियों की तरह लम्बे
लम्बे बाल रखते हो
तुम लड़के हो लड़की नहीं जो
हमेशा डरते रहते हो
लड़कियों की तरह रट के मत पढ़ो
पुलिस की नौकरी लड़कों को ही
करनी चाहिए
घर में क्यों बैठे हो लड़की
हो क्या ?
क्या तुम लड़कियों की तरह
चुगली करते हो
तुमसे ये काम नहीं हो रहा चूड़ियां पहन लो
तुम लड़के हो पढ़ोगे-लिखोगे नहीं तो नौकरी
नहीं लगेगी और शादी नहीं होगा
तुम्हारे पेट में लड़कियों की
तरह कोई बात नहीं पचती
लड़के होकर लड़कियों से हार
मानते हो, लड़के हारते नहीं है
आप तो लड़के हो, बिना दहेज
के शादी करके परिवार की नाक कटवाओगे
क्या लड़कियों की तरह पिट के
आ गया
तुम तो परिवार की शान हो, लड़का ही
परिवार का नाम रोशन करेगा
लड़के को पहले खाना खिलाओ, लड़कियां
और औरते आदमी के बाद खाना खा सकती है
मूछे रखो, क्योंकि
आप मर्द हो
घर के अहम फैसले पुरुष ही ले
सकते है
लड़के हो तो एक दो गर्लफ्रेंड
तो होनी ही चाहिए
पिता की सम्पति और व्यापार को
तुम्हे ही संभालना होगा
लड़का होकर लड़की से हार गया
इस एक्टिविटी के बाद कानाफूसी के खेल और जेंडर
की कहानी के जरिए, हमने जेंडर क्या होता है? इसकी शुरुआत कैसे हुई? जेंडर और सेक्स में क्या अंतर है उसपर समझ बनाई।
चाय के छोटे अंतराल के बाद सभी प्रतिभागियों को
एक बार फिर 6 अलग- अलग समूहों में बांटा गया जहां हर समूह को एक जगह/ संस्था
दी गई – घर, मीडिया, धर्म, शिक्षा, कार्यस्थल और सार्वजनिक जगह, जहां उन्हें चर्चा
करनी थी कि इस जगह अथवा संस्थागत ढांचे में उन्हें महिला और पुरुषों में क्या फर्क
दिखाई देता है।
पहला समूह- घर
जन्म के समय परिवार के
सदस्यों उम्मीद करते हैं कि लड़का हो।
पालन पोषण में पहली
प्राथमिकता लड़कों को ही दी जाती है क्योंकि बेटा ही पंश आगे बढ़ाता है और परिवार
की सारी जिम्मेदारी पुरुषों।
बेटी को पराया धन माना जाता
है, परिवार के मुख्य निर्णय पुरुष लेते हैं और उसमें महिलाओं का कोई योगदान
नहीं होता।
लड़कियों को शारीरिक तौर पर
कमजोर माना जाता है।
घर के अंदर के जोखिम भरे काम
पुरुष करते हैं।
महिलाओं को घर के अंदर ही एक
सीमा में रहने दिया जाता है।
पुरुष स्वंय ही अपने भविष्य
के जिम्मेदार होते हैं पर ऐसा लड़कियों के साथ नहीं होता। वो आत्मनिर्भर नहीं होती, उनकी
पढ़ाई, शादी आदि के फैसले लड़के ही लेते है।
घर के बाहर वाले काम अधिकांश
तौर पर पुरुषों को ही करने होते है।
घर के सभी काम महिलाओं की
जिम्मेदारी माने जाते हैं।
घर पर आए अजनबी, रिश्तेदारों
से बातचीत पुरुष करते हैं, महिलाओं को सुरक्षा का हवाला
देते हुए बात करने की आज़ादी नहीं होती।
दूसरा
समूह: मीडिया
मीडिया किसी कम्पनी के उत्पाद
का प्रचार करने के लिए अक्सर महिलाओं का इस्तेमाल करते हैं।
ज्यादातर न्यूज़ चैनल में
महिलाओं को बतौर एन्कर प्रस्तुत किया जाता है।
मीडिया में अगर पुरुष एन्कर
होता है तो उसके साथ महिला को भी एन्कर के तौर पर रखा जाता है ताकि प्रस्तुतिकरण
आकर्षक बनाया जाता है।
पुरुष-महिलाओं के चल रही
अंतर्रष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं को मीडिया ज्यादा से ज्यादा पुरुष खिलाड़ियों का
ही खेल प्रस्तुत करती है जबकि महिला खिलाड़ियों को कम प्रस्तुत करती है।
महिलाओं से जुड़े अपराध
मनोरंजन की दृष्टि से बार बार एवं आवश्यकता से अधिक दिखाई जाती है जिसके फलस्वरुप
समाज में महिलाओं के प्रति गलत अवधारणाएं बन जाती है।
टीआरपी बढ़ाने के लिए महिलाओं
पर हो रहे अत्याचारों को बढ़ा चढ़ाकर दिखाया जाता है।
मीडिया राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं की अपेक्षा पुरुष
वर्ग को नेतृत्व क्षमता में अधिक प्रभावशील दर्शाती है।
मीडिया फिल्मों के माध्यम से
लड़के एवं लड़कियों की कॉलेज जाने की विधि स्थिति को बहुत अलग तरीके से दिखाती है
और बढ़ा चढ़ाकर दिखाती है जैसे लड़के और लड़कियां कॉलेज में सिर्फ रोमांस करने के
लिए जाते हैं।
मीडिया महिलाओं के आइटम सांग
और अश्लील छवियों के माध्यम से समाज के सम्मुख उनकी छवि को धूमिल करती है।
मीडिया फिल्मों और छोटे- छोटे
चलचित्रों के माध्यम से हमारे ऐतिहासिक महिलाओं के विषय में बढ़ा चढ़ाकर
प्रस्तुतीकरण करती है जिससे उनकी व्यापार में अधिकता प्राप्त हो।
तीसरा
समूह: धर्म
मुस्लिम धर्म में जब भी
महिलाएं बाहर जाती है तब उनको बुर्का पहनना अनिवार्य माना जाता है।
धार्मिक ग्रंथों के अनुसार
महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान धार्मिक कार्यों को करना वर्जित है।
हिंदू और मुस्लिम धर्म के
अनुसार किसी के भी दाहसंस्कार में महिलाओं को जाना वर्जित है,।
कुछ विशेष भगवान के मंदिरों
में महिलाओं का जाना वर्जित है जैसे हनुमान और शनि देव का मंदिर।
ग्रंथों में ग्रह कलेश और
युद्ध का कारण हमेशा महिलाओं को बताया जाता है।
धार्मिक ग्रंथों में उदाहरण
के तौर पर मुस्लिम पुरुषों को तीन विवाह करने की आज़ादी है पर महिलाओं के लिए कोई
प्रावधान नहीं है।
धार्मिक ग्रंथों के अनुसार
महिलाओं को पुरुषों की अर्धांगिनी कहा गया है।
विधवा महिला को साज श्रृंगार
करना वर्जित माना जाता है।
नारियल तोड़ने का कार्य
पुरुषों का है।
कई धार्मिक ग्रंथों में
पुरुषों की एक से ज्यादा पत्नियों का वर्णन है लेकिन स्त्रियों के बारे में ऐसा
कहीं लिखा नहीं गया है।
सती प्रथा, दासी
प्रथाओं का वर्णन धार्मिक ग्रंथों में मिलता है।
मंदिरों, मस्जिदों,
गिरजाघरों में पुरुष की प्रधानता होती है।
हमारे घरों में पूजा-पाठ और
व्रत रखने के कार्य महिलाएं करती है।
धार्मिक ग्रंथों में नायक
पुरुष प्रधान होते है।
कई धार्मिक ग्रंथों में
महिलाओं को उपहार के स्वरुप प्रस्तुत किया गया है।
धार्मिक ग्रंथों के मुताबिक
पति को परमेश्वर का दर्जा दिया गया है।
ग्रुप 4
: शिक्षा
बच्चों की पहली पाठशाला घर
होती है, और यही से लड़के और लड़की में फर्क शुरु हो जाता है।
अक्सर घर में बोला जाता है कि
लड़की आगे पढ़कर क्या करेगी इसलिए उन्हें स्कूल जाने से रोक दिया जाता है पर
लड़कों की पढ़ाई पर जोर दिया जाता है।
घरों में सुनाई जाने वाली
कहानियां पुरुष प्रधान होती है।
लड़कियों को प्राथमिक शिक्षा
दी जाती है वहीं लड़कों को आगे बढ़ने और उच्च शिक्षा लेने के लिए प्रोत्साहित किया
जाता है।
पाठ्यपुस्तकों में प्रदर्शित
नायक या प्रधान शख्स पुरुष होता है, और यहां भी कामों का फर्क जेंडर पर
आधारित होता है।
शिक्षा क्षेत्र का जो
पाठ्यक्रम है उसमें पुरुष प्रधान समाज की कल्पना की जाती है।
लड़के घर से कितनी भी दूर
स्थित स्कूल या कॉलेज में पढ़ाई कर सकते है वहीं लड़कियों को ऐसा मौका नहीं दिया
जाता।
लड़कियों को पढ़ाई के साथ साथ
घर के कामों में हाथ बटंना पढ़ता है इससे उन्हें पढ़ाई के लिए कम समय मिलता है।
लड़कियों की कम उम्र में शादी
कर दी जाती है जिसकी वजह से वो उच्च शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाती।
तकनीकि शिक्षा और अनुसंधान के
क्षेत्र में महिलाएं कम आती है।
ग्रुप 5: कार्यस्थल
पुलिस और सेना में महिला
अधिकारी को भी सर कहकर संबोधित किया जाता है।
रात्रि के समय ज्यादातर महिला
सिपाहियों को पेट्रोलिंग पर नहीं लगाया जाता।
फील्ड के काम के लिए पुरुष
अधिकारियों को तवोज्जह दी जाती है।
कार्यस्थल पर महिलाओं को गलत
नजर से देखा जाता है।
महिला अधिकारी के अधीन कार्य
करने में पुरुषों को शर्म महसूस होती है।
महिला कर्मचारी को निर्णय
लेने में बांधाएं डाली जाती है।
कार्यस्थल पर महिला कर्मचारी
को शौचालय की समस्या रहती है।
ग्रुप 6: सार्वजनिक स्थल
बस स्टॉप पर शाम और रात के
समय महिलाएं न के बराबर दिखती है।
पार्क में महिलाएं कम दिखती
है, यहां लड़का और लड़की साथ में बैठे हो तो उन्हें अलग तरीके से देखा जाता
है साथ ही हर व्यक्ति सिर्फ लड़की को पहचानने की कोशिश करता है, लड़कियां अक्सर मास्क लगाकर बाहर घूमती है।
चाय की तपरी पर लड़की का खड़ा
होना सही नहीं माना जाता।
गांव का भ्रमण करते समय हमेशा
पुरुष आगे चलता है और महिला पीछे।
गांव में किसी भोज या
कार्यक्रम में पहले पुरुषों को खाना खिलाया जाता है फिर महिलाओं की। और इन
कार्यक्रमों में पुरुषों की संख्या महिलाओं से काफी ज्यादा होती है।
ट्रैफिक व्यवस्था बनाए रखने
के लिए चौराहों पर पुरुष आरक्षक ही दिखाई देते है।
स्टेडियम या खेल के मैदानों
पर ज्यादातर लड़के ही नजर आते है।
मॉल या दुकानों में महिलाओं
को सेलपर्सन रखा जाता है ताकि सामान की बिक्री बढ़े।
बारात में महिलाएं कम नजर आती
है, और कई जगहों पर उनके नाचने और मनोरंजन पर पांबदी भी लगाई जाती है।
सार्वजनिक जगहों पर लड़के
कैसे भी कपड़ों में घूम सकते है, शार्ट्स या बनियन पर लड़कियों के
कपड़े हमेशा चर्चा का विषय बने रहते है।
ये बातचीत काफी अहम और रोचक रही,
जेंडर की समझ को प्रतिभागी अपने जीवन में खुलकर देख पाएं और बड़े समूह बिना किसी
झिझक के बोल पाए। इसी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए पितृसत्ता और उसके प्रभाव पर समझ
बनाई गई। प्रतिभागियों की समझ से निकले अहम बिंदूओं को लेकर विस्तार से बताया गया
कि किस तरह पितृसत्तामक ढांचा न केवल महिलाओं को बल्कि पुरुषों को भी अपने जाल में
फंसा लेता है और ये व्यवस्था हर जेंडर पहचान के लिए नुकसानदेयक हो सकती है। बचपन
से लेकर जीवन के हर पड़ाव में पितृसत्ता और जेंडर ऐसे रच-बस गया है कि हमें लगता
ही नहीं है कि कुछ गलत है, ऐसा महसूस होता है कि ये हमारे जीवन का हिस्सा नतीजन हम
इस फर्क की दलदल में महज धंसते जाते हैं।
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