“महिलाओं द्वारा खाना बनाना किसी
तौर पर भी हिंसा हो सकती है ऐसा सोच पाना नामुमकिन लगता था, पर जब आपने कहा कि
अगले 25 सालों तक तीनों समय बिना सैलरी के अगर मुझे खाना बनाना पड़े, तो मैं घबरा
गया। एकदम मुझे अपनी माता जी का ख्याल आया, मैंने तो कभी पूछा भी नहीं कि वो खाना
बनाना चाहती है या नहीं, बीमारी में तकलीफ में वो खाना बनाती है, हमारी फरमाइश
पूरी करती है। मुझे अपनी मां और पत्नी के लिए बहुत अजीब और बुरा लगा।”
जेंडर और पित्तृसत्ता पर समझ बनाने
के बाद हमारा अगला सत्र जेंडर आधारित हिंसा पर आधारित रहा। यहां एक बार फिर
प्रतिभागियों को 6 अलग-अलग समूहों में बांटा गया और उन्हें एक वाक्य देकर पूछा गया
कि क्या उनके मुताबिक ये वाक्य जेंडर आधारित हिंसा दर्शाता है। अपने समूह में
बातचीत के बाद उन्हें चर्चा के मुख्य बिंदू सबसे सामने प्रस्तुत करने के लिए
आमंत्रित किया गया।
पहले समूह के लिए वाक्य रहा- घर
में खाना बनाना सिर्फ महिलाओं का काम है। उम्मीदों के मुताबिक किसी भी
प्रतिभागी को नहीं लगता था कि ये भी एक तरह की हिंसा हो सकती है- चर्चा में कहा
गया कि आदमी बाहर का काम करते हैं तो घर में बैठकर महिलाएं करेंगी क्या, कुछ तो
करना ही है न। लड़कियां अच्छा खाना बना लेती है, उन्हें स्वाद की परख होती है। पर
ऐसा नहीं है कि लड़कियां ही खाना बनाती है कई हॉटल में कुक मर्द होते हैं इत्यादि।
“मुझे लगता नहीं कि
खाना बनाना किसी भी तरह की हिंसा हो सकती है, शायद ये एक परिस्थिति से जुड़ी हिंसा
हो सकती है”
इस बात पर मैंने महज एक सवाल पूछा
कि “अगर कल सुबह से अगले 25 सालों तक आपको तीनों समय खाना बनाना पड़ेगा बिना
किसी पगार के, और मैंने आपसे पूछा नहीं है मैं आपको बता रही हूं तब क्या?”
इस वाक्य को सुनते ही पूरे हॉल में
सन्नाटा पसर गया, कुछ देर के लिए कोई कुछ नहीं बोला। फिर एक कोने से धीमे से आवाज़
आई, हां ये तो एक तरह की हिंसा ही हुई है, जहां शारीरिक तौर पर तो नहीं पर मानसिक
तौर पर काफी दवाब पड़ेगा। “कई बार मेरी मां बीमार हो जाती
है तो भी उन्हें खाना बनाना पड़ता है, मैं तो हमेशा उनसे फरमाईश करता हूं कभी इस
बारे में कुछ पूछा ही नहीं। ये सुनकर काफी अजीब लग रहा है।”
दूसरा वाक्य- “लड़कों को रोना चाहिए, क्योंकि मर्द को दर्द नहीं होता”
एक प्रतिभागी ने कहा- “मुझे लगता है जिस मर्द को दर्द नहीं होता वो मर्द ही नहीं है।” इस समूह ने जिस तरह से चर्चा के बिंदू सामने
रखे वो काबिले तारीफ रहा क्योंकि बड़े गोले में बैठे हर शख्स इस वाक्य पर अपनी राय
रखना चाहता था और साफ पता चल रहा था कि कैसे लड़कों को रोने नहीं देना एक तरह की
जेंडर आधारित हिंसा है और साथ ही हिंसा की जननी भी है। “जब रोने नहीं दिया जाता तो दिमाग में प्रेशर बनते रहता है, सिर में बात
घूमती रहती है, हम किसी से इस बारे में बात भी नहीं कर सकते क्योंकि दूसरे लोग
सोचेंगे कि हम कमचोर है।”
“कई बार दिमाग में चल
रहे प्रेशर की वजह से मैं नशे का सेवन करने लगता हूं। मैंने कई आदमियों को देखा है
जो सिर्फ इस परेशानी, दर्द या दुख को अपने दिमाग से बाहर निकालने के लिए नशा जैसे
दारू, सिग्रेरट या गांजा पीते हैं। नहीं तो दिमाग फट जाएगा, नशे की हालत में अपनी
बात रखना आसान हो जाता है”
तीसरा वाक्य- “जो आदमी घर में काम करता है वो जोरु का गुलाम होता है”- इस तरह
के तानों और उलहानाओं को हिंसा की श्रेणी में रखा गया। “शादी का मतलब ये नहीं है कि आप किसी को अपनी जरुरत को पूरा करने के लिए
लाए हो, पार्टनर का मतलब है एक दूसरे का सहयोग करने वाला, साथ निभाने वाला अगर ऐसे
में कोई आदमी अपनी पत्नी की मदद करता है तो इसमें कुछ गलत नहीं है, रही बात जोरु
के गुलाम की तो ये एक धारणा से ज्यादा कुछ नहीं हैं”
चौथा वाक्य- “आदमी ने अपनी पत्नी को पीटा है, यानि उसने कुछ गलत किया होगा तभी पति ने
हाथ उठाया”
“ये तो हिंसा है,
किसी भी वजह से किसी पर भी हाथ उठाना गलत है। अक्सर आदमी बाहर काम से थककर आता है,
या ऑफिस में डांट खाकर आता है, या फिर बाहर ऐसा कुछ हुआ है जिससे वो गुस्सा है।
ऐसे में वो अपना गुस्सा निकालने के लिए छोटी छोटी गलतियों को ढूंढता है, गलती
मिलते ही वो बिना सोचे समझे अपनी पत्नी और बच्चों पर गुस्सा निकालता है। एक बात ये
भी है कि आप मार उसी को सकते हो जो शारीरिक तौर पर कमजोर हो। मैं थोड़े किसी
पहलवान या खली के साथ जाकर भिड़ जाऊंगा। और घरेलू हिंसा इसलिए भी होती है कि हमारे
समाज में बहुत कानाफूसी है, किसी ने मेरी बीबी के बारे में कुछ बोला, बिना उससे
पूछे या बात किए मैं शक करने लगूंगा और हाथ उठा दूंगा”
“हमारे समाज में, घर
परिवार में भी यहीं दिखता है न, पिता जी काम से थक हारकर आते है, छोटी सी गलती पर
मां पर उठाते है, मां बिना कुछ कहे सुनती और पिटती है। ऐसे में हमें लगता है कि
यही सही है, ऐसा ही होता है, इसलिए ज्यादातर लड़के बड़े होकर यही करते हैं”
“मुझे नहीं लगता
औरतें कमजोर होती है, वो हम पर हाथ आराम से उठा सकती है, वो सिर्फ इसलिए हाथ नहीं
उठाती क्योंकि वो हमारी इज्जत करती है”
पांचवा वाक्य- “औरतों को पर्दे में रहना चाहिए, क्योंकि छोटे कपड़े देखकर आदमी फिसल सकता
है, और वो रेप कर सकता है।”
“पर्दा प्रथा अपने आप
में ही हिंसात्मक चीज है क्योंकि ये आजादी छीन लेता है। पर्दे की वजह से गांव में
महिलाएं अपने ससुर का फोन तक नहीं उठाती, किसी परेशानी की घड़ी में इसके काफी
नकारात्मक परिणाम हो सकते है।ऐसे में तो पशु इंसान से अच्छे है क्योंकि वो तो कपड़े
नहीं पहनते, ऐसे में तो हर किसी के साथ जबरदस्ती हो सकती है। स्पोर्ट्स में पीटी
ऊषा हो या कोई महिला खिलाड़ी तो क्या वो साड़ी पहनकर खेल खेलेंगी? और अगर ऐसा ही है तो बच्चियों, बुजुर्ग महिलाओं के साथ ऐसी घटनाएं क्यों
होती है”
छठा वाक्य- “बलात्कार का मतलब केवल जबरदस्ती सेक्स करना ही नहीं है”
“बलात्कार तो है ही
हिंसा, लेकिन उसके बाद जो भी उनके साथ होता है वो उस हिंसा से बढ़कर होता है।
पुलिस के सवाल, परिवार की पांबदी, केस दर्ज नहीं करने का दवाब, मेडिकल टेस्ट, रेप
को परिवार की इज्जत से जोड़ दिया जाता है, बार बार उस बात का एहसास दिलाया जाता है
कि यहां उसकी कोई गलती है। और कई बार आदमी बस अपनी इगो, ताकत दिखाने, बदला लेने,
महिला की सम्मान को छति पहुंचाने के लिए रेप करता है”
पुलिसकर्मियों
द्वारा अलग अलग वाक्यों पर काफी विस्तार से चर्चा की गई, और जिस तरह से हर समूह ने
बड़े ग्रुप के सामने अपने चर्चा के बिंदू रखे उसे देखकर ही समझ आ रहा था कि वो खुल
रहे हैं और बिना झिझक के अपनी सोच और समझ सामने रख पा रहे थे। इसके साथ ही वो अपने
जीवन में जेंडर आधारित फर्क को देख और महसूस कर पा रहे थे। मुझे ऐसा लगता है कि
कार्यशाला की पहली सफलता यही होती है कि जब प्रतिभागी को इतना सुरक्षित महसूस हो
पाए कि वो अपनी धारणाएं भी सामने रखने में घबराए नहीं, अपनी जिंदगी में झांक पाए
औऱ उसे दूसरे प्रतिभागियों के साथ बांट पाए।
ग्रुप प्रेजेंटेशन
और उस पर आधारित चर्चा से निकले अहम बिंदूओं को लेकर जेंडर आधारित हिंसा पर समझ
बनाई गई। जेंडर आधारित हिंसा के प्रकार, किस तरह से वो हमारे जीवन को प्रभावित
करता है और उसका विकराल रुप सभी जेंडर और यौनिक पहचानों को क्षति पहुंचाती पर
विस्तार से बातचीत की गई।
एक छोटे ब्रेक के
बाद ‘जेंडर आधारित हिंसा के जब केस पुलिस के पास आते है, तो उनका
पहली प्रतिक्रिया क्या होती है’ उस पर माइंड मैंपिंग की
गई- ये प्रक्रिया काफी रोचक रही जहां खुद पुलिसकर्मियों ने अपने व्यवहार पर रोशनी
डाली।
पहले दिन की आखिरी
प्रक्रिया में हर समूह को अलग-अलग परिस्थिति दी गई जहां उन्हें आज के दिन में
जेंडर पर बनी अपनी समझ और सोच को एक नाटक के जरिए प्रस्तुत करना था। मैं काफी
हैरान और खुश थी क्योंकि नाटक की प्रस्तुति और तैयारी एकदम प्रोफेशनल तरीके से की
गई, प्रतिभागी तैयारी में इतना खो गए कि उन्हें समय भी कम लगने लगा, हर परिस्थिति
को उन्होंने बखूबी से सोचा और बेहद संवेदनशीलता से प्रस्तुत किया।
पहली परिस्थिति में
एक महिला जिसके साथ रेप हुआ है वो पुलिस में शिकायत दर्ज कराने आती है, ऐसे में
पुलिस द्वारा लगातार सवाल पूछे जाने या फिर शिकायत दर्ज करने में आनाकानी की जगह-
एक महिला कॉन्सटेबल उसके साथ बैठती है, उसे पानी पिलाती है और अगर वो अपने साथ हुई
वारदात के बारे में बात करना चाहती है तो उसकी बात पूरी तरह सुनती है। इसके बाद न
सिर्फ उसकी शिकायत दर्ज की जाती, बल्कि उसके परिवार वालों को समझाया जाता है, और
कम अंतराल में आरोपियों को पकड़कर कोर्ट में पेश किया गया।
दूसरी परिस्थिति में
एक महिला अधिकारी अपने सीनियर पुलिस अधिकारी के खिलाफ यौन शोषण की शिकायत दर्ज
कराने आती है- ये परिस्थिति काफी मुश्किल थी, ऐसे में इस समूह ने काफी रोचक तरीके
से दिखाया कि कैसे आरोपी पुलिस अधिकारी अपनी सत्ता का इस्तेमाल करके केस को खारिज
करने के लिए दूसरे पुलिस अधिकारी पर दवाब बनाता, नौकरी छीनने या फिर ट्रांसफर की
धमकी देता है। इसके साथ मीडिया का दवाब भी दिखाया,पहले इंचार्ज पुलिस अधिकारी
घबराता है, केस फाइल करने में हिचकिचाता पर बाद में ये बात वो अपने सीनियर अधिकारी
से बांटता है और उनसे चर्चा करने आरोपी पुलिस अधिकारी के खिलाफ केस फाइल करता है।
मुझे लगता है कि अगर ये समूह ऐसा सोच पा रहे है तो ये बहुत बड़ी बात है क्योंकि
आर्मी और पुलिस में अपने सीनियर के खिलाफ जाना लगभग नामुमकिन सा माना जाता है।
तीसरी परिस्थिति –
पुलिस स्टेशन में आपका दिन काफी परेशानी और थकावट भरा रहा है, आप गुस्से में हो।
जब आप घर पहुंचते तो सारा घर बिखरा पड़ा है, कहीं साफ सफाई नहीं है, खाना भी नहीं
बना है और आपकी बीवी बिस्तर पर सो रही है। इस परिस्थिति को तीसरे समूह ने शुरुआत
में जैसे प्रस्तुत किया उसने मुझे परेशान कर दिया था क्योंकि नाटक में पति हमेशा
की तरह बीबी पर चिल्लाता है, गुस्सा करता और ताने देता है। पर कुछ सेकेंड में
उन्होंने दिखाया कि कैसे वो सोच में पड़ जाता है और उसे याद आता है कि कुछ साल
पहले उसने एक जेंडर और हिंसा पर आधारित ट्रेनिंग ली थी जहां इस बारे में चर्चा हुई
थी, वो खुद को कोसता है और सोचता है कि कैसे वो फिर इतना असंवेदनशील हो गया। अपने
मन के अंतरद्वध को शांत करते हुए वो डॉक्टर को बुलाता है, और अपनी बीमार पत्नी के
लिए खाना बनाता है। इस दिन की कई खूबसूरत बातों में से ये भी एक दिल को छूने वाली
बात रही।
चौथी परिस्थिति- एक
सेक्स वर्कर आपके पुलिस स्टेशन में अपने पति के खिलाफ घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज
कराने आती है। मुझे काफी डर था कि कैसे पुलिसकर्मी इस परिस्थिति को नाटक के जरिए
प्रस्तुत करेंगे? लेकिन मेरे डर के विपरित उन्होंने दिखाया कि बिना किसी
उलहाना के उन्होंने सेक्स वर्कर का केस दर्ज किया, उसके पति को गिरफ्तार किया और
कानून का पालन किया। “अगर तुम्हारी पत्नी सेक्स वर्कर है, तो वो पैसा कमाती है।
तुम तो कुछ काम नहीं करते वो उसका रोजगार है जिससे वो अपना और घर का पालन पोषण कर
रही है, तुम महज उसका इस्तेमाल करते हुए सारा पैसा दारू में बहा देते हैं? उसके रोजगार की वजह से तुम उस पर हिंसा करो, ये किसी को अधिकार नहीं है और
कानून जुर्म है।”
पहला दिन भावनात्मक
तरीके से काफी भारी रहा, ऐसा इसलिए भी क्योंकि जेंडर और हिंसा पर समझ बनाना खुद के
जीवन और मानसिकता में झांकना होता है, पुलिसकर्मियों की बातचीत, वाद-विवाद और आखिर
में नाटक ने पूरे दिन को एक नए तरीके से रच दिया था। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि
पुलिसकर्मी जिनके लिए आम जनता की इतनी कठोर धारणाएं होती है वो इतना खुलकर बातचीत
कर पाएंगे और साथ ही संवेदनशीलता से जेंडर की समझ को अपने जीवन में देख पाएंगे।
दूसरे दिन का सत्र,
पिछले दिन में हुई जेंडर आधारित हिंसा को आगे बढ़ाते हुए खुद से जुड़ी कहानियों और
अपने जीवन में हिंसा को लेकर रहा। काफी डर और घबराहट के साथ मैंने इस सत्र को
बनाया था और उससे भी ज्यादा घबराहट इस सत्र के क्रियान्वयन को लेकर रही क्योंकि
अपने से जुड़ी बेहद निजी और ऐसी बातें जो उनके जीवन में हुई हिंसा से जुड़ी हुई है
उसे 50 प्रतिभागियों और 2 लड़कियों के साथ सांझा करना बेहद मुश्किल हो सकता है। साथ
ही ये सत्र बेहद जरुरी था, क्योंकि दूसरों के साथ होने वाली या हुई जेंडर आधारित
हिंसा के बारे में बात करना कुछ हद तक आसान है, ये सोचना कि हिंसा दूसरो के साथ
होती है मेरे साथ नहीं इस धारण को चुनौती देना दूसरा कारण था, तीसरा अपने साथ हुई
हिंसा को बोल पाना, अपने जख्मों को दूसरों के साथ सांझा करना एक पल के लिए अपने आस
पास बनाई गई दीवारों को तोड़ पाना उन घावों को ठीक करने के लिए पहला कदम बन सकता
है।
इसलिए पूरे विश्वास और हिम्मत के साथ इस सत्र की शुरुआत की। मैंने एक-एक करके
कई वाक्य पढ़े, जिस प्रतिभागी को लगे कि वो वाक्य उसके जीवन की एक सच्चाई है उसे
गोले में एक कदम आगे बढ़ना था। मेरा दिल इतने जोरों से धड़क रहा था कि मानो मेरी
सांस रुक जाएगी, एक पल के लिए लगा कि ऐसे वाक्यों पर कोई भी आगे कदम नहीं बढ़ाएगा
पर जो विश्वास हमने पिछले दिन बनाया था उसकी वजह से ये गोला एक सुरक्षा के घेरा
जैसा बना, जहां प्रतिभागियों ने बिना झिझक के आगे कदम बढ़ाया।
ये एक्टिविटी काफी गहन
और भावनात्मक तौर पर झकझोरने वाली रही, एक एक कदम और चेहरे के बदलते भाव, आंखों
में झगड़ रहे आंसू, रुकती हुई सांसे इस बात का प्रतीक रही, पर एक दूसरे को देखते
हुए प्रतिभागियों को खुद की सच्चाई सामने लाने में मदद मिली। जब भी कोई बात बेहद
भारी लग रही थी, तो हम लम्बी सांस लेते हुए आगे बढ़ रहे थे।
इसके बाद हमने
प्रतिभागियों को इन वाक्यों से जुड़ी कहानियों या भावनाओं को बड़े समूह में सांझा
करने के लिए आमंत्रित किया। ये एक और बेहद मुश्किल घड़ी थी पर अब तक जो विश्वास
स्थापित हुआ उससे ताकत लेते हुए प्रतिभागियों ने लगभग 2-3 घंटों तक एक एक करने
अपने जीवन से जुड़ी बेहद अन्तरंग बातों और भावनाओं को बांटा।
“हम सभी पिछले 7 महीनों से
एक साथ है लेकिन कभी भी ऐसे बैठकर बात नहीं की, किसी के बारे में पूछा नहीं। आप
लोगों ने इस एक्टिविटी के जरिए हमें अपने दिल की बात कहने और दूसरों की बात सुनने
का मौका दिया जो आज तक किसी ने नहीं दिया। इतना हलका महसूस हो रहा है, काफी शांत
लग रहा है। अपनी दिल की बात बांटना कुछ गलत नहीं है, किसी के सामने भावुक होना गलत
नहीं है। मुझे तो बेहद खुशी हो रही है”
“अपनी भावनाएं बताकर कभी
इतना मजबूत महसूस नहीं हुआ।”
मैं बेहद खुश थी कि
प्रतिभागी अपने जीवन के दर्द, दुख, चुनौतियों, हीन भावना, कुछ फैसलों को लेने का
और कुछ कदम न उठाने का अपराध बोध आपस में बांट पाए। इस दौरान ‘मर्द को दर्द नहीं होता’ पर एक बार फिर चर्चा छिड़
गई, और हर बात से पता चल रहा था कि ज्यादातर पुरुष क्यों नशा करते हैं, क्रोध
क्यों करते है औऱ साथ ही कैसे मर्दानगी का दवाब उनके मानसिक स्वास्थ्य से खिलवाड़
करता है।
सत्र के खत्म होने
के बाद भी प्रतिभागी वर्कशॉप की जगह को छोड़कर जाने को तैयार नहीं थे, कुछ शांति
से बैठे हुए थे, तो कुछ एक दूसरे से बात कर रहे थे और कुछ एक दूसरे को गले लगकर
अपना स्पोर्ट दिखा रहे थे। क्या एक नई बात नहीं है जहां भावुकता पुरुषों के लिए
किसी वर्जित सीमा को पार करने जैसा हो वहां ये प्रतिभागी अपनी भावनाओं को दर्शाने
के साथ साथ दूसरों की भावनाओं को सम्मान देते और एक दूसरे की परवाह करते दिख रहे
थे। शायद इससे ज्यादा मुझे कुछ नहीं चाहिए था J
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