वैसे तो हवा और पानी के अलावा लगभग सभी चीजों के बिना जीया जाना
मुमकिन है, पर ज़िंदगी में कुछ चीज़े अपने साथ एक एहसासात जोड़ लेती है और उनकी
नामौजूदगी ज़िंदगी को मुश्किल कर देती है। हर कदम पर उनकी कमी खलती है, उनके आने
का, अपने आसपास होने का, उस खुशनुमा एहसास का, उनकी महक का ज़िंदगी में अपना ही
रुतबा होता है।
उसकी मौजूदगी मेरी ज़िंदगी में कुछ ऐसे ही एहसासों से जुड़ी हुई है,
उम्र के अलग अलग पड़ाव पर मैंने उसके लिए अपनी भावनाओं को महसूस किया है, जब कोई
साथ नहीं होता तो उसके साथ ने आराम दिया है, अलग अलग मौसम में उसकी न बदलने वाली
शख्सयित ने मुझे बेहद आकर्षित किया है, रात के दो बजे के अंधियारे में कमरे एक
कोने में बैठकर हमने एक दूसरे के साथ अपना अकेलापन बांटा, लोगों के सागर के बीचों
बीचे महसूस होते हुए खालीपन को उसने भरने में मेरी मदद की।
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मज़े की बात को ये है कि तरह तरह की पढ़ाई और कभी ऊपर चढ़ते तो कभी डांवा-डोल
होते हुए मेरी करियर ग्राफ को भी उसने देखा, पर उसने कभी मेरा हाथ नहीं छोड़ा। जब
एग्ज़ाम से पहले मिली छुट्टियों में मौज मस्ती करने के बाद, एग्ज़ाम से ठीक एक दिन
पहले मुझे डर के बादल अपने आगोश में लपेट लेते थे तो वो किसी सुपरमैन की तरह मुझे
न सिर्फ उससे आज़ाद करता था बल्कि उस खौफ से लड़ने के लिए ताकत देता था। घर में
घुसते ही सबसे पहले मेरी निगाहे उसे ढूंढती थी, मेरा ज़हन उसको तलाशता था, उसके न
होने पर एक अजीब तरह की बौखलाहट होती थी। उसके बिना रहने का तसव्वुर ही बेहद अजीब
और गैरजरुरी जा लगता था। कॉलेज में जब मेरे पास पैसों की कमी होती थी, और मैं अपने
जबरदस्ती के बनाए दोस्तों के साथ हैंग आउट नहीं कर पाती थी, तब भी उसने मेरा साथ
दिया।
नौकरी के दिनों को सोच कर तो शायद मैं और वो बहुत हंसते हैं, क्योंकि
वहां उसने काफी दोस्त बनाए। छोटे-छोटे बहुत ही फिज़ूल से बहाने बनाकर मैं उससे
मिलने जाया करती थी, और वो हमेशा की तरह मेरा इंतज़ार करता था। मेरे बदलते मूड और
भावनाओं को भी उसने देखा है पर मेरा साथ नहीं छोड़ा। कई बार ऑफिस का गुस्सा भी,
कभी कभार भद्दी भाषा में उसके सामने उगल दिया, लेकिन बाकी सारी कायनात के विपरित
उसने मुझे जज नहीं किया, मेरे बारे में धारणाएं नहीं बनाई। गैर हमारी छुपन-छुपाई तो
चलती रही, लेकिन फिर काम के बढ़ने और ऑफिस की पबांदियों की वजह से हमारी मुलाक़ाते
कम हो गई, कई बार घर वापसी पर भी उससे मिलना नहीं हो पाता था। लेकिन दफ्तर में
नाइट शिफ्ट के दौरान फिर से हमारी दोस्ती में रंग भर गए, फिर चुपके –चुपके मिलना
हुआ, अच्छी बात ये है कि रात में पाबंदी कम लगती है पर समय की सीमा ने वहां भी
काफी दिक्कतें डाली।
इन सबके बीच में एक बात तो हमेशा स्थिर रही वो थी – कि जो उसे पसंद
नहीं करेगा वो मेरा दोस्त नहीं बन पाएगा। ऐसा नहीं है कि हमारा साथ एकदम फूलों से
भरे रास्तों पर चला है, कभी बार हमारी जिराह भी हुई, उसकी कड़वाहट ने मेरा ज़हन को
बिगाड़ा, तो कभी बार दिनों-दिनों में हमारी मुलाकात नहीं हुई। कई जगहों पर उसकी
गैरमौजूदगी इतनी खली कि मैंने उसे दीवानों की तरह ढूंढा पर उसका कहीं कोई नामो
निशान नहीं मिला। मई में 16 दिनों की छुट्टियों में भी उसने एकदम मेरा साथ छोड़
दिया, बहुत ढूंढने पर भी उसने अपनी एक झलक दिखाना जरुरी नहीं समझा। अपने जन्मदिन
पर मुझे उसके जैसे दिखने वाला बहरुपिया मिला, उसी जैसा रंग, उसकी जैसी महक पर वो
नहीं था। खैर मैं काफी गुस्सा रही, दिमाग में सौ सवाल उछल कूद कर रहे थे, मेरा दिल
भी मानो मेरी सोच को दर किनार कर रहा था, मैं उससे मिलना चाहती थी, उसे देखना
चाहती थी, समझना चाहती थी कि क्या उसने भी मुझे इतनी ही शिद्दत से याद किया जितना
मैंने ? शायद हां या शायद नहीं।
घर पहुंचते ही मां ने हमेशा की तरह एक सीधी लाइन में अलग-अलग बातों के
निर्देश दिए- कि कहां सामान रखना है, नहा लो, कपड़े वहां डाल दो, जूते वहां रख
दो...वगैरह वगैरह पर मेरी निगाहे उसे ही ढूंढ रही थी, तलाश रही थी मेरे उस दोस्त
को जिसने बिना मेरा जीवन बेस्वाद और बेरंग लगता है। मेरी बौखलाहट को थोड़ी देर तक
नज़रदांज करते हुए फिर समझते हुए मेरे पिता जी ने कहा जाओ अपने कमरे में ...मैं
लेकर आता हूं।
मैंने राहत की सांस ली...जल्दी से नहाकर कपड़े बदलकर तैयार हुई...इतनी
देर में मेरे पापा ट्रे में दो कप चाय लेकर आए...और उसे देखकर मेरे चेहर की
मुस्कान एक बार फिर लौट आई..
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