फिल्म ‘डियर जिंदगी’ मुझे बेहद पसंद है, उसके कई डायलॉग मेरे फेवरेट
है, जिनमें से एक था ‘क्यों हम आसान रास्ता नहीं चुनते’। मैं और मोना अपना काम करते समय अक्सर सोच में
पड़ जाते है, कि हां भई हम आसान रास्ता क्यों नहीं चुनते, क्या हमें लगता है कि
आसान रास्ते से काम नहीं बनेगा। बागपत में साहस का दूसरा कार्यक्रम पूरे जोरो-शोरो
से चल रहा है, यकीन मानिए हमने कभी सोचा नहीं था कि हमें दिल्ली से बाहर काम करने
का मौका मिलेगा वो भी इतनी जल्दी।
द्वारका से बागपत जाने के लिए हम 4 मेट्रो बदलते
है और फिर मेट्रो स्टेशन से बागपत के लिए गाड़ी आती है जिसमें तकरीबन डेढ़ घंटा
लगता है, इसके बाद करीब एक घंटे की दूरी पर पिलाना ब्लॉक है जहां हम इस बार 60
महिलाओं के साथ ‘जेंडर, यौनिकता और नारीवादी’ कार्यक्रम आयोजित कर रहे हैं। दोपहर का सत्र पिलाना ब्लॉक
से तकरीबन 10 किलोमीटर दूरी पर स्थित मुखारी गांव में होता है क्योंकि यहां के
समूह की महिलाओं के लिए पिलाना ब्लॉक तक आना आसान नहीं है, ऐसे में हमने सोचा कि
अगर वो नहीं आ सकती तो क्या हुआ हम तो उन तक पहुंच सकते हैं, शायद इसी को इनक्लूशन
कहते हैं। पर एक बात तो है कि यहां तक पहुंचते पहुंचते हमारी “आसान रास्ते” वाली थ्योरी धराशाई हो
जाती है।
मैं जब न्यूज़ चैनल में काम करती थी तो दूसरे
पत्रकारों की तरह मैं भी काफी रंग बिरंगी भाषा का इस्तेमाल करती थी, जैसे सड़क में
गड्ढे के लिए- ‘पता नहीं चलता कि सड़क में गड्ढे हैं या गड्ढों में सड़क’ लेकिन हकीकत की दुनिया और
न्यूज़ चैनल की दुनिया में ज़मीन आसमान का फर्क होता है क्योंकि गांवों के बीच की
सड़क तो ठीक-ठाक है, लेकिन दिल्ली से बागपत तक जाने वाले रास्ते में बहुत निर्माण
का काम चल रहा है, हर जगह टूट फूट है, गड्ढे ही गड्ढे दिखाई देते हैं, जहां सड़क
हैं वहां जाम की भरमार है। बागपत से गांव तक का रास्ता जाने के लिए गाड़ी उछल
उछलकर जाती है, सच बोले तो शरीर की एक एक हड्डी जवाब देने लगती है।
पर एक बात है जो हमें यहां आने के लिए
प्रोत्साहित करती है वो हैं समूह की महिलाएं, इनके चेहरे की चमक, सीखने की ललक और
अपने आप को मज़बूत बनाने की इच्छा। इस बार का सत्र यौनिकता पर आधारित रहा। लेकिन
जैसे ही हम मुखारी गांव पहुंचे तो देखा कि हॉल की जगह एक घर का चबूतरा था, जो तीन
तरफ से बंद था लेकिन सामने से खुला हुआ था यानि कोई भी कभी भी आ सकता था, और यहां
क्या हो रहा है बाहर से आराम से देखा जा सकता है।
मैं काफी असमंजस में थी कि क्या मैं महिलाओं के
साथ यौनिकता पर चर्चा कर पाऊंगी, खुलकर सारी बातें उनके सामने रख पाउंगी, और हां
क्या महिलाएं खुले में यौनिकता और निजी अनुभवों को शेयर करने में सहज हो पाएंगी
क्योंकि एक बंद कमरे में सुरक्षित जगह बनाना आसान होता है, महिलाएं गतिविधियों में
खुलकर भाग ले पाती है और एक अहम बात ये भी थी कि जब भी मैंने किसी कार्यशाला में
भाग लिया है और डेढ़ साल से मैं जब भी कार्यशाला आयोजित करती हूं तो वो बंद कमरे
में ही होती है।
फिर महिलाओं की तरफ देखा और मन में सोचा हटाओ
यार! बंद कमरे में कभी भी
आज़ादी की इबारत नहीं लिखी जाती है, और समय आ गया है जिंदगी के एक और ढांचे को
तोड़ने का। और सुरक्षित जगह सिर्फ बंद कमरे से नहीं बनती, बल्कि विचारों, नियत और
सोच से बनती है जो सभी मेरे पास हैं, इसलिए बिना हिचकिचाए मैंने सत्र की शुरुआत ‘ढाल और तलवार’ के खेल से की। मेरे
पूर्वानुमानों की धज्जियां उड़ाते हुए महिलाओं ने खुलकर खेल खेला, वो हंस रही थी,
भाग रही थी मानो उन्हें ये दो घंटे पूरी तरह जीने हो!
इसके बाद महिलाओं को 5-5 के समूह में
बांटा गया और उन्हें “सांप सीड़ी” के खेल के लिए
आमंत्रित किया गया। सुबह के सत्र की तरह इस सत्र में भी महिलाओं के साथ 2-3
किशोरियां थी जिन्होंने खेल को न सिर्फ खेला बल्कि उसके पीछे के मुद्दे को लेकर भी
समझ बनाई। सांप और सीड़ी पर लिखे संदेशों को पढ़ने के साथ साथ उन्होंने इससे जुड़े
अपने निजी अनुभवों को बांटा।
इसके बाद महिलाओं को 4 अलग अलग समूहों में
बांटकर बॉडी मैपिंग करने के लिए आमंत्रित किया। ध्यान देने की बात ये है कि ये
महिलाएं ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं है बावजूद इसके सभी ने एक दसरे की मदद करते हुए
गतिविधि में भाग लिया, चाहे वो महिला का चुनाव करना हो, रेखा खींचनी हो, अंगों के
नाम लिखना हो, या इन अंगों को विभाजित करना हो- आनंद, ताकत, शर्म और दर्द।
“बड़े बुज़ुर्गों के सामने ये सब बातें हम कैसे
कर सकते हैं?”
“अरे तुम लोग बात कर पाओ इसलिए तो मैं अपने निजी
बातें बांट रही हूं, और यहां बात नहीं करोगे तो फिर कहां करोगे”
“मैंने तो अपने पति को संबंध बनाने के लिए मना
करा कितनी बार, लेकिन वो सुनता ही नहीं। किसान है, दिन भर कमर तोड़कर काम करने के
बाद उन्हें यही सूझता है और मना कर दो तो बस शायमत आ गई। लेकिन ऐसा शहर में तो
होता नहीं होगा”
“इसकी तो जबरदस्ती शादी हुई है, ये तो शादी करना
ही नहीं चाहती थी, तो हां फिर संबंध बनाने का मन कहां करेगा”
“मुझे लगता है कि आप तो कह रही है वो सही है बिना
सहमति के संबंध बनाने में कोई आनंद नहीं आता बल्कि गुस्सा आती है, लगता है कि उसको
पीट दूं मेरा शरीर है, जब उसका मन करता है वो इस्तेमाल करता है, ये कहां की बात
हुई”
“हमें बेटियों के साथ साथ बेटों को भी ये बात
समझानी होगी, पर ये बात करना बहुत मुश्किल है, लड़के तो सुनते ही नहीं. समझेंगे
कैसे”
आखिरी गतिविधि में खुलकर सेक्स, शरीर, यौनांगों,
सहमति और इच्छाओं पर बातचीत हुई, जिसका नतीजा ये निकला कि महिलाओं ने खुद कहा कि
हां उन्हें अपनी शारीरिक जरुरतों के बारे में बातचीत करना चाहिए, इससे बेहतर बात
और क्या हो सकती है। खैर मुझे यहां वर्कशॉप करते हुए अपने गांव की याद आ गई और लगा
कि जरुर एक दिन मैं अपने गांव की महिलाओं और पुरुषों के साथ जेंडर और यौनिकता के
मुद्दे पर जरुर बात करूंगी :-)
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