Tuesday, 7 November 2017

मेरा जेंडर, मेरा अस्तिस्व और मेरी पहचान



2-3 दिन पहले की बात है मैं सब्जी खरीद रही थी, एक महिला ने फल खरीदे, उसकी बेटी बार-बार केला मांग रही थी, लेकिन उसने सारे फल अपने बैग में रख लिए। दुकानदार ने अपनी टोकरी से उठाकर लड़की को एक केला दे दिया। इतने में महिला का बेटा केला मांगकर जोर जोर से चिल्लाने लग गया। उसके बाद जो हुआ वो मुझे बेहद बुरा लगा, महिला ने बेटी के हाथ से छीनकर केला अपने बेटे को दे दिया, और वो लड़की बस देखती रह गई। हममे से कई मां ऐसा ही करती है, अपनी लड़की से ज्यादा लड़के को मानती है।

बिनौली ब्लॉक में 60 महिलाओं के साथ जेंडर, यौनिकता और नारीवादी नेतृत्व कार्यक्रम के सफल आयोजन के बाद बागपत प्रशासन ने साहस को पिलाना ब्लॉक में इस कार्यक्रम को लागू करने के लिए आमंत्रित किया। बिनौली के मुकाबले यहां के महिला स्वंय सहायता समूह बनने की प्रक्रिया में हैं ऐसे में प्रशासन का मानना है कि इस कार्यक्रम को आयोजित करने से समूह की एकता और जागरुकता को नया आयाम मिलेगा। यहां भी हम दो अलग समूहों में तकरीबन 60 महिलाओं के साथ काम करेंगे।



सुबह के सत्र की शुरुआत उंगली खेल से हुई, जिसमें महिलाओं ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया, यहीं नहीं कई महिलाओं ने आगे बढ़कर इस खेल को खिलाया भी, उनके चेहरे पर आई खुशी ने आगे की गतिविधियों के लिए रास्ता तय कर दिया था।



कार्यशाला की शुरुआत में हमने यहां आने का, इससे पहले बिनौली ब्लॉक में अपने काम और दिल्ली में चल रहे साहस के काम का ब्यौरा दिया साथ ही आने वाले 2 घंटे में क्या-क्या होगा उसकी रुपरेखा सांझा की। कार्यशाला के नियमों और सहमति बांटने के बाद कानाफूसी का खेल शुरु किया, इसी को आधार बनाकर मोना ने प्रतिभागियों के साथ मिलकर जेंडर की कहानी की रचना की। हैरान करने वाली बात ये थी कि ज्यादातर महिलाएं पढ़ी लिखी नहीं थी, बावजूद इसके उन्हें आदिमानव के बारे में उसके रहन सहन के बारे में जानकारी थी, थोड़ा और चर्चा करने पर उन्होंने सेक्स/संभोग के बारे में भी बातचीत की। 


इस गतिविधि के बाद महिलाओं को दो समूहों में बांटकर, उन्हें ऐसे 3 संदेश बताने के लिए आमंत्रित किया गया जो उन्हें महिला/ लड़की होने के वजह से मिले हैं। कुछ संदेश इस प्रकार है-

मुझे मेरी मां ने बचपन से ही सीखाया है कि कैसे अच्छी लड़की बनना है, लड़कों से यहां बाहर वाले लोगों से बातचीत नहीं करनी है, बाहर घूमने नहीं जाना है, कुछ भी ऐसी बात नहीं करनी है जिससे मेरी मां की परवरिश पर उंगली उठे और परिवार का नाम खराब हो क्योंकि मेरे पिता नहीं है।


मुझे बोला गया कि आवाज धीमी होनी चाहिए, कम बोलना चाहिए और धीरे बोलना चाहिए।

हम जब बाहर जाते हैं तो हमेशा बोला जाता है कि किसी के साथ मत जाओ, किसी की बाइक पर मत बैठना, कहीं लिफ्ट मत लेना भले ही मीलों पैदल चलना पड़े।


घर में हमेशा मर्दों को पहले खाना दिया जाता है बाद में औरत को खाना।

बेटे को दूध दिया जाता है वहीं लड़कियों को चाय क्योंकि उसमें दूध बहुत कम होता है।

लड़कों को अच्छी पढ़ाई के लिए प्राइवेट स्कूलों में भेजा जाता है वहीं लड़कियों को सरकारी स्कूल में क्योंकि ऐसा बोला जाता है कि ज्यादा पढ़ लिखकर लड़कियों करेंगी क्या, आखिर में उन्हें चूल्हा ही तो संभालना है।


लड़कियों को पराया समझा जाता है, लड़कियों पर कोई विश्वास नहीं करता, हमेशा ताने सुनाए जाते हैं चाहे फिर दहेज के लिए हो, लड़की पैदा करने के लिए हो

घर से बाहर निकलने पर पति की अनुमति लेनी पड़ती है, हर काम पूछ कर करना होता है, किसी भी बात पर महिलाएं फैसला नहीं ले सकती। घर से बाहर निकलने पर सिर पर पल्ला लेना ही होता है

ऐसा कहा जाता है कि आदमी के बिना औरत का कोई अस्तित्व नहीं होता

इसके बाद महिलाओं को उन्हीं दो समूहों में बैठकर चर्चा करनी थी कि घर और सार्वजनिक जगहों पर महिला और पुरुष में क्या-क्या फर्क दिखाई देता है


दीदी फर्क ही फर्क है, छोटी से छोटी और बड़ी सी बड़ी बात में फर्क दिखाई देता है, कपड़ों से लेकर खान-पान में। चाहे महिला कितनी भी बीमार हो, खाना तो बनाना ही पड़ेगा।

घर में आदमी का खौफ होता है, पत्नी और बच्चे आदमी से डरकर रहते हैं

महिला हमेशा डर के साए में रहती है, उसकी पिटाई होती है, गाली गलौच होता है



कुछ भी हो, कोई भी स्थिति हो, हमेशा महिला की ही गलती निकाली जाती है

ज्यादातर सार्वजनिक जगहों में मर्द ही दिखाई देते हैं, दुकानों पर वहीं बैठते हैं, गाड़ियां भी वहीं चलाते हैं, घर से बाहर के काम, सामान खरीदते भी पुरुष है। बहुत परेशानी होगी तभी औरत बाहर निकलती है, उसपर भी उसे ढेरो नसीहतें सुनने को मिलती हैं।


इस बार हमने वर्कशॉप में मूल्यांकन फार्म की प्रक्रिया शामिल की है ताकि हमें पता चल पाए कि महिलाओं को क्या समझ में आया, उन्हें कोई सी गतिविधियां अच्छी लगी, क्या अच्छा नहीं लगा और क्या सुधार हो सकता है। इसके साथ ही जब वो समूह में बैठेंगी और सवालों पर चर्चा करने के फैसला लेंगी तो समूह के निर्णस क्षमता का भी विकास होगा। 


हमें एक उंगली, जेंडर की कहानी, कानाफूसी पसंद आई, इसके साथ ही जब हमें अपने बारे में अपने महिला होने के बारे में चर्चा करने का मौका मिला, तो दिल में छुपी कई बातें सामने आई, उन्हें बोलकर काफी मन हलका हुआ। साथ ही लगा कि हमें हर समय सहने की जरुरत नहीं है


इसके साथ ही 3 महिलाओं ने आगे बढ़कर अपने अनुभव को लेकर वीडियो बनाने पर हामी भरी। देखा जाए तो कई मायनों में ये कार्यशाला बेहद अच्छी रही, जहां महिलाओं ने जेंडर पर समझ बनाई वहीं ग्रामीण परिपेक्ष्य पर महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों पर हमारी समझ और मजबूत हुई। 


हम हमेशा अपने काम के बारे पर सोशल मीडिया में लिखते हैं ताकि लोग हमारे काम को देख पाए, समझ पाए, और इस काम से जुड़ पाए, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ कि सोशल मीडिया पर अपने अनुभव सांझा करने से पहले ही हिन्दूस्तान अखबार में पिलाना ब्लॉक में शुरु हुए साहस के काम के बारे में लिखा गया। शायद ये हमारे काम के लिए नया अध्याय है, हम नई ऊर्जा और बुलंद हौसलों के साथ इस काम को आगे बढ़ाए ताकि हिंसा मुक्त समाज की परिकल्पना को हकीकत का जामा पहनाए      

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