‘बात तो आप सही कह रही हैं, इस
बात पर मैं अपने साथ हुई एक घटना के बारे में बताना चाहती हूं। हमारे गांव में
अक्सर मर्द अपनी पत्नियों को मारते हैं, एक बार मैंने एक महिला को बचाने की कोशिश
की तो मेरे ही पति ने मुझे डांट दिया, कहा कि मुझे दूसरे के मामले में पड़ने की
क्या जरुरत है? और बहुत बुरा-भला भी सुनाया, फिर कई बार इन्हीं बातों पर आस-पड़ोस में लड़ाई
भी हो जाती है।’ एक प्रतिभागी ने साप सीड़ी के खेल के दौरान
छोटे समूह में बांटा।
पिछले हफ्ते ‘जेंडर’ पर
आधारित सत्र के दौरान कई अहम बातें सामने आई जिससे समझ में आया कि महिलाओं का
अधिकतर समय घर में ही बीतता है, बाहर निकलने का मौका नहीं मिलता, अगर वो बाहर जाती
भी हैं तो जब कोई बहुत जरुरी काम आ जाए वो भी पति की अनुमति लेकर। ऐसे में
काम-काज, घर की देखभाल, पैसे की तंगी, चिंता परेशानी के बीच वो अपना दिल बहलाने या
कुछ मनोरंजन करने के बारे में सोच भी नहीं पाती। इन्हीं बातों के मद्देनजर इस बार
के सत्र ‘यौनिकता’ को हमने खेल,
चित्रकारी और नाटक के तौर पर तैयार किया था ताकि वो मनोरंजन के जरिए अपने आप को और
अपने शरीर को समझ पाए।
सत्र की शुरुआत ‘तलवार और ढाल’ के खेल से की गई जिसमें प्रतिभागियों ने जमकर धमा-चौकड़ी मचाई। ये खेल एक
बहुत बेहतरीन तरीका है जिससे समूह की ताकत और रचनात्मक समाज को बनाने की सीख मिलती
है।
इसके बाद हमने पिछले सत्र की बातों को दोहराया
और एक बार फिर सहमति पर बात की। रोचक बात ये थी कि महिलाएं एकदम स्कूल जाने वाले
छात्राओं की तरह नज़र आ रही थी, कुछ-कुछ एक्टिविटी याद थी, कुछ याद करने की कोशिश
कर रही थी, कई बातें जैसे कानाफूसी का खेल, जेंडर की कहानी एकदम याद थी उन्हें
बताने के लिए उत्साह से हाथ खड़ा कर रही थी और ये सब करते हुए उनके चेहरे पर एक
अलग ही रौनक थी।
पहली एक्टिविटी में हमने महिला प्रतिभागियों को
साप-सीड़ी का खेल खेलने के लिए आमंत्रित किया, प्रतिभागियों को छह समूहों में
बांटा गया और हर एक समूह को एक साप सीड़ी का खेल खेलने के लिए दिया। ये खेल बिलकुल
वैसे ही खेलना था जैसे हम अपने बचपन में खेलते थे, पर इसमें छोटा सा बदलाव ये रहा-
सीड़ी चढ़ने और सांप काटने की जगह पर एक
संदेश लिखा हुआ था, जिसे उस प्रतिभागी को पढ़ना था जिसकी गोटी वहां खेल के दौरान
पहुंचती।
ये खेल जितना मज़ेदार था, संदेश उतने ही संजीदा
और अहम थे, ऐसे में ये एक्टिविटी काफी गहन हो गई। प्रतिभागी खेल खेलते हुए काफी
खुश हो रहे थे, कभी जीतने की ललक दिखाई देती थी तो कभी सांप काटने पर दुख था पर इस
खेल के जरिए हम महिलाओं के लिए एक सुरक्षित गोला बना पाए- कई संदेशों को सुनकर
महिलाओं ने अपनी आपबीती अपने अपने समूह में बांटी- जहां मर्दों का शराब पीना, उसके
बाद गाली-गलौच करना, पिटाई करना, विधवा होने की वजह से शुभ कार्यों का हिस्सा न बन
पाना, समाज के ताने और उलाहना सुनना, कम उम्र में शादी होना, बेटे की चाह में चार
से ज्यादा बच्चों की मां बनना जैसी कई बातें सामने निकलकर आई। कई महिलाएं काफी
भावुक हो गई, ऐसे में उन्होंने अपने दर्द को बांटा, इसके साथ ही एक समूह की
महिलाओं के बीच में पैसे के बंटवारे को लेकर विवाद भी हो गया।
मुझे ये देखकर काफी खुशी हो रही थी क्योंकि जहां
हम अपने मन की बात खुलकर रख सकते हैं वहीं हमें वो अपनापन और आत्मविश्वास महसूस
होता है और यही बातें एक समूह को जोड़ने में अहम किरदार निभाती हैं। इसके बाद
महिला प्रतिभागियों को चार समूहों में बांटा गया और चार अलग-अलग परिस्थितियां दी गई
जिसपर उन्हें एक कहानी का निर्माण करके बड़े गोले में एक नाटक प्रस्तुत करना था। महिलाएं पहले काफी
झिझक रही थी, उन्हें लगा कि बस वो वहां जाकर परिस्थिति का समाधान सुना देंगी, नाटक
तो वो कर ही नहीं सकती। लेकिन धीरे धीरे समूह में चर्चा करने के बाद किरदार बांटे
गए और उन्होंने नाटक बना लिया।
‘दीदी ये नाटक नहीं ये तो सच्चाई
है, हमारे यहां ऐसा बहुत होता है। हम तो नाटक कर लेंगे पर बताओ सरकार इसमें क्या
करेगी’- एक प्रतिभागी ने पूछा।
‘नाटक बनाओ तो सही, परेशानी का
समाधान निकालने की सोचो तो शायद सरकार की जरुरत ही न पड़े।’
और हुआ भी कुछ ऐसा ही, एक ग्रुप में एक महिला अपनी
14 साल की लड़की की शादी करने पर अटल थी लेकिन जब समूह की औरतों ने मिलजुल कर उसे
कम उम्र पर लड़की की शादी करने के नुकसान बताए और उसे पढ़ाने के लिए प्रेरित किया
तो वो मान गई।
वहीं दूसरे नाटक में समूह ने मिलकर विधवा महिला
की मदद की ताकि वो अपने बच्चों की पढ़ाई और खाने-पीने के लिए साधन जुटा पाए, तीसरे
में समूह की औरतों ने मिलकर एक महिला की दुकान खोलने में मदद की और चौथे नाटक में
शराब के नशे में धुत आदमी को उसकी बीबी को पिटने से रोक दिया।
जो महिलाएं पहले झिझक रही थी, गुपचुप थी, केवल
सरकार से मदद मांगने की सोच रही थी वो नाटक के बाद आत्मविश्वास और उम्मीद से
ओत-प्रोत नजर आई। अब वो एक दूसरे से खुलकर बातचीत कर रही थी, हंस रही थी और उन्हें
शायद समय की भी चिंता नहीं सता रही थी।
‘क्या आपको लगता है कि आप कमज़ोर
हैं?’
पहली महिला: 'मैं तो कमज़ोर ही हूं न,
जब पति हाथ उठाता है तो मैं क्या कर पाती हूं ?'
दूसरी महिला: 'नहीं मुझे नहीं लगता तू या फिर मैं कमज़ोर हैं, ये तो हमारी शर्म है और समाज का लिहाज है नहीं तो क्या हम अपने उपर हाथ उठाने वाले का हाथ नहीं पकड़ पाएंगे? हम तो मार भी सकते हैं, लेकिन वो पति है इसका लिहाज कर जाते हैं पर उन्हें किसी का लिहाज नहीं हैं। पर तू अपने दिल से इस बात को निकाल दे।'
मुझे अब कुछ कहने की
जरुरत ही नहीं थी, मैं तो हमेशा की तरह मुस्कुरा रही थी क्योंकि पितृसत्ता की
बुनियाद में अब सेंध लग चुकी है :-)
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