“अगर कोई किसी लड़की को छेड़ रहा
है तो दूसरी महिलाएं देखती क्यों रहे, अगर सारी महिलाएं एकजुट हो जाए तो किसी भी
मुश्किल का सामना आसानी से कर सकती हैं। हम सड़क पर बैठ जाएंगे, तो हमारी मांगे
माननी ही पड़ेगी। हमें अपनी सोच बदलनी होगी तभी कोई और चीज बदलेगी।” 50 साल की महिला प्रतिभागी ने एक ग्रुप एक्टिविटी के दौरान इस बात को
बुलंद आवाज़ में कहा।
साहस बागपत के बिनौली में महिला स्वयं सहायता
समूह से जुड़ी 52 महिलाओं के साथ जेंडर और महिला नेतृत्व को लेकर काम कर रहा है।
26 महिलाओं के समूह के साथ सुबह का सत्र और बाकी 26 महिलाओं के समूह के साथ दोपहर
का सत्र चलाया गया। पहले समूह के मुकाबले ये समूह बहुत ऊर्जा, जोश, उम्मीद और सीखने
की चाह से भरपूर नजर आया।
सुबह के सत्र के बाद हम वर्कशॉप की जगह पर ही थोड़ा
आराम कर रहे थे कि समय से 15 मिनट पहले ही दोपहर के सत्र में हिस्सा लेने वाली
महिलाएं हॉल में पहुंची। इन महिला प्रतिभागियों की उम्र 23-55 साल के बीच थी, मैं
थोड़ा ठिठकी क्योंकि कई महिलाएं 50 साल के पार थी। अक्सर जो मैं एनरजाइज़र करवाती
हूं वो किशोर-किशोरियों और युवाओं में तो बेहद हिट रहा है लेकिन मैं असमंजस में थी
कि क्या इतनी उम्रदराज महिलाएं इस खेल को खेलना भी चाहेंगी? पर
उम्मीद के विपरित महिलाएं खुलकर खेलने लगी, यही नहीं कई प्रतिभागियों ने खुद खेल
खेलाने के लिए हाथ उठाए, और फिर खेल खिलाया भी। पहली बार महसूस हुआ कि एनरजाइज़र
ने सच में प्रतिभागियों में ऊर्जा भर दी।
हमारी सभी वर्कशॉप बातचीत, कहानियों और फिल्मों
पर आधारित होती हैं इसी वजह से कुछ अहम सहमतियों पर समझ बनाई गई। वर्कशॉप की
शुरुआत कानाफूसी के खेल से हुई जहां दो लम्बी लाइनें एक कान से दूसरे कान तक
पहुंचते पहुंचते दो शब्दों में सिमट गई, जिसके बाद प्रतिभागियों में हंसी की फुहार
छूट गई। लेकिन हंसी के इस खेल से हमने जेंडर की कहानी बुनी – पुराने समय और आज के
परिपेक्ष्य की तुलना करते हुए समझ बनाई कि कैसे कुछ परिस्थितियों ने एक ऐसा ढांचा
बना दिया जिसकी वजह से महिला और पुरुष कुछ जिम्मेदारियों में बंधकर रह गए, उनकी
विशेषताएं और कमी उनके लड़के और लड़की होने पर आधारित हो गई!
इसके बाद प्रतिभागियों को दो अलग अलग समूहों में
बांटा गया जहां उन्हें उनके महिला होने की वजह से मिले संदेशों को आपस में बांटने
के लिए आमंत्रित किया गया।
“नौकरी करने वाली महिलाओं को गलत
समझा जाता है”
“लड़की बाहर किसी काम से नहीं जा
सकती, उसे ताने मारे जाते हैं”
“बहुत कम लड़कियां स्कूल जा पाती
हैं”
“समूह की बैठक में जानेवाली महिलाओं
को भी गलत समझा जाता है”
“बेटी मां-बाप के घर पर नहीं रह
सकती है”
“मुस्लिम महिला के पति की मौत पर
उसे घर में ही रहना पड़ता है, वो किसी भी काम के लिए बाहर नहीं जा सकती, चाहे भूख
से क्यों न मर जाए”
“स्कूल जाकर क्या करोगी, मैडम
बनना है क्या”
“घर का कामकाज सीखो, ससुराल जाकर
क्या करोगी”
“आदमी हर बात पर गाली गलौच करते
हैं, हाथ उठाते हैं, खर्चे का हिसाब किताब मांगते हैं”
“कम उम्र में शादी करवा दी जाती
है, फिर जल्दी बच्चे हो जाते हैं”
“10वीं का फार्म भरा था लेकिन
मेरी शादी करा दी गई फिर मैं कुछ नहीं करवा पाई”
इस दौरान कई प्रतिभागियों ने ये बोला कि आदमी से
पहले तो औरतें ही औरतों की दुश्मन होती है, मुझे कुछ आश्चर्य नहीं हुआ, मैं जवाब
देने वाली ही थी कि एक प्रतिभागी ने कहा कि वो ऐसा नहीं मानती- अगर औरतें एकजुट हो
जाए तो हर समस्या का समाधान कर सकती है। अगर किसी औरत के साथ कुछ गलत हो रहा है तो
उन्हें उसके खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिए।
मैं काफी खुश हुई क्योंकि यही तो समझ बनाने की
कोशिश हम कर रहे हैं ऐसे में 50 साल की ये प्रतिभागी ने उन धारणाओं को कड़ी चोट
पहुंचाई जिसके मुताबिक केवल युवा ही समाज में बदलाव ला सकते हैं, लेकिन आज मुझे
विश्वास हो गया कि बदलाव लाने के लिए उम्र की ढाल बनाना सही नहीं है, किसी भी उम्र
का शख्स बदलाव की चिंगारी शुरु कर सकता है बस वो मन में ठान ले।
अगली एक्टिविटी में प्रतिभागियों को एक बार फिर
दो समूहों में बांटा जहां एक समूह को घर और दूसरे समूह को सार्वजनिक स्थान पर
महिला और पुरुष के परिपेक्ष्य में जो फर्क दिखते हैं उसे आपस में बांटना था। एक और
अहम बात ये थी कि इन फर्क को बताने में महिलाओं को झिझक नहीं हो रही थी, वो जानती
है इस फर्क को, पर इस समूह की महिलाएं वो ढांचे को तोड़ने की इच्छा भी रखती है।
“दीदी रात को क्या यहां तो मैं
दिन में भी घर से नहीं निकलती क्योंकि लोग बातें बनाते हैं”
“मैं तो रात में भी घर से बाहर
निकलने में नहीं डरती, पहले घबराहट होती थी पर अब आशा कार्यकर्ता बन गई हूं तो कभी
भी कही भी जा सकती हूं”
“मनोरंजन के लिए कभी कभार
सहेलियों के साथ मिलकर गीत गा लिए, यहां औरतों के मनोरंजन के लिए क्या होगा, आदमी तो
चोपाल हो गई, सड़के हो गई और कुछ नहीं तो शराब के अड्डे पर ही मज़े कर लेते हैं”
“आदमी चौपाल पर दिखते हैं,
लड़कियों तो गलियों में भी दिखाई नहीं देती”
दोपहर का सत्र काफी मज़ेदार रहा, उम्मीदों और
सपनों से भरे हुए इस सत्र की समाप्ति भी काफी प्रेरक रही :-)
“मैं चाहती हूं कि मेरी बहू भी
ऐसी बैठकों में आए, घर पर रहकर कामकाज तो होता ही रहेगा लेकिन वो बाहर निकलेगी,
दूसरी महिलाओं के साथ उठेगी-बैठेगी, आपसे मिलेगी तो बहुत कुछ सीख पाएगी और अपने
लिए कुछ करपाएगी, मेरा बेटा उसे नहीं आने देता क्या आप उसे समझा सकती हैं?”
वहीं सबसे सुखद यादगार जो मैं हमेशा याद रखूंगी
वो ये कि हमें जो फ्रूटी और बिस्कुट दिए गए वो महिला स्वंय सहायता समूह से जुड़ी
महिला की दुकान से खरीदे गए थे। सरकार की ये योजना काबिले-तारीफ़ है जो महिलाओं को
आर्थिक रुप से सशक्त तो कर ही रही है, साथ ही उनके अंदर के उद्यमी को भी राह दिखा
रही है वहीं साहस से जोड़कर उनकी मानसिकता बदलने का भी प्रयास कर रही है :-) बागपत
का ये दिन एक नए बदलाव की रोशनी लेकर आया है, मैं खुश हूं कि मैं इस बदलाव की
मुहिम का एक हिस्सा हूं :-)
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