“घर में बैठने से क्या होगा, हम पूरा दिन कामकाज
में लगा देते हैं, फिर भी कोई न कोई ताना मार ही देता है। जब घर से बाहर निकलेंगे
तभी तो कुछ पता चलेगा या फिर नई जानकारी मिलेगी”
“मेरा पति इतना शराब का आदी है कि मुझे खाना नहीं
बनाने देता, सब्जी में मसाले नहीं डालने देता, हर बात पर मारपीट पर उतर जाता है।
इससे बड़ा फर्क और क्या होगा? ”
“खुद तो पूरा पूरा दिन आदमी घर से बाहर घूमते
रहते हैं, लेकिन अगर हम घर से पड़ोस में भी जाएं तो उन्हें बताना पड़ता है क्योंकि
वो हम पर विश्वास नहीं करते? अगर हमने पूछ लिया तो फिर हमारी खैर नहीं”
ये वो कहानियां है जो कभी कही किसी को सुनाई
नहीं देती, शायद किसी के पास वक्त ही नहीं इन कहानियों को सुनने का या फिर ऐसा है
कि ये किस्से हर स्तर पर तकरीबन हर औरत की जिंदगी का हिस्सा बन गए हैं कि एहसास ही
नहीं हुआ कि हिंसा और रोजमर्रा की जिंदगी कैसे एक ही धागे में बंधकर रह गई। महिला
सशक्तिकरण के लिए कई स्तर पर सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों की तरफ से कई उमदा
प्रयास किए जा रहे हैं- मसलन आर्थिक रुप से उन्हें मजबूत करना, पढ़ने के लिए
प्रोत्साहित करना, रोजगार के साधन उपलब्ध कराना, सरकारी स्कूलों में टॉयलेट का
निर्माण आदि पर कहीं न कहीं इन प्रयासों में कुछ छूट जाता है।
तकरीबन एक साल दिल्ली-एनसीआर में
किशोर-किशोरियों, युवाओं और महिलाओं के साथ काम करने के बाद साहस को एक बहुत बड़ा
मौका और जिम्मेदारी सौंपी गई है। बागपत जिला प्रशासन के सहयोग से साहस ‘बिनौली’ में उत्तर प्रदेश राज्य
ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत महिला स्वंय सहायता समूह से जुड़ी 52 महिलाओं के साथ
जेंडर और महिला नेतृत्व के मुद्दे पर एक समझ बनाने की मुहिम में जुट गया है।
साहस ने अलग-अलग महिला सहायता समूह से जुड़ी 26
महिलाओं के साथ जेंडर पर आधारित पहली वर्कशॉप का आयोजन किया। शहरी और ग्रामीण
परिपेक्ष्य में काफी अंतर होता है इसके साथ ही यहां साक्षरता का स्तर भी काफी कम
है, इन्हीं कुछ बातों को ध्यान में रखते हुए बड़े ध्यान से वर्कशॉप की रुपरेखा तय
की गई, हालांकि ये बात सच है कि जेंडर से जुड़े मुद्दे हर जगह कहीं न कहीं एक समान
ही होते। महिला प्रतिभागी एकदम सही समय पर पहुंच चुकी थी और उनमें एक अलग तरह की
उत्सुकता भी नजर आ रही थी। मैं यकीन से कह सकती हूं कि इस गांव में घर से निकलने
वाली महिला काफी साहसी है और उनमें कुछ करने की चाह है क्योंकि रुढ़िवादी समाज की
बेड़ियों की शिकन इनकी बातों में साफ झलकती है।
वर्कशॉप की शुरुआत हमने ‘उंगली गेम’ से की, मुझे थोड़ी घबराहट
थी क्योंकि यहां 25- 55 साल तक महिलाएं हिस्सा ले रही थी, वहीं ज्यादातर ये खेल
मैंने किशोर-किशोरियां या फिर युवाओं को खिलाया है और ये वहां काफी हिट रहा है, पर
यहां कैसे होगा मुझे नहीं पता था। अपेक्षाओं के विपरित महिलाओं ने पूरे जोशो-खरोश
के साथ खेल में हिस्सा लिया, बहुत हंसी और अपने प्रयास के लिए तालियां भी बजाई। इसके
बाद हमने अपना और साहस का परिचय दिया और उनके साथ काम करने का उद्देश्य भी सांझा
किया।
प्रतिभागियों के साथ मिलकर कानाफूसी का खेल
खेलते हुए हमने जेंडर की कहानी बनाई और समझ बनाने की कोशिश की कैसे करोड़ों साल
पहले की एक स्थिति अब सामाजिक ढांचा बन चुकी है जिसमें महिला और पुरुष दोनों पर भी
एक अदृश्य सा दबाव बना हुआ है। जेंडर की समझ को आगे बढ़ाते हुए हमने प्रतिभागियों
को दो अलग अलग ग्रुप में बांटा जहां हर एक प्रतिभागी को उनके महिला होने की वजह से
मिले संदेश आपस में बांटने थे। इस दौरान प्रतिभागी असमंज में दिखे, एक महिला ने
उठकर कहा कि वो अपने घर में किसी को बताकर नहीं आई इसलिए क्या वो यहां से जा सकती
है। जेंडर के सत्र में एकदम लाइव उदाहरण मिल गया- जिसके बाद महिला प्रतिभागियों को
साफ हुआ कि उन्हें क्या- क्या बांटना है, मसलन-
‘पति की अनुमति के बिना हम कहीं नहीं जा सकते,
अगर पड़ोस में भी जाना है तो बताकर जाना होता है नहीं तो लोग बाते बनाते हैं, पति
को बोलते और फिर वो हमपर शक करते हैं।’
‘लड़कियों को पढ़ने नहीं भेजा जाता है, लड़के जा
सकते हैं’
‘बच्चे पैदा नहीं कर पाने की स्थिति में महिला को
ससुरालवाले बहुत ताने मारते हैं, परेशान करते हैं।’
‘तू लड़की है, पढ़ा-लिखाकर क्या करेंगे, पैसे
क्यों बर्बाद करना आखिर ससुराल जाकर चूला-चौका ही तो करना है’
‘पति के मर जाने पर औरत का जीवन नर्क बना दिया
जाता है, समाज वाले उसे आराम से जीने नहीं देते’
‘महिलाओं को घर का काम भी देखना पड़ता है और बाहर
का भी, हर खर्च का हिसाब देना पड़ता है’
‘अगर तुम्हें बाहर जाना है तो खाना बनाकर जाना
पड़ेगा’
‘मैं 8वीं में पढ़ती थी जब मेरी मां बीमार हो गई,
उसके बाद मुझे बोला गया कि भाई-बहन पढ़ेंगे, फिर पढ़ने की बारी आई तो शादी हो गई,
फिर पढ़ना चाहा तो बच्चा हो गया। अब बच्चे बढ़े हो गए हैं तो बच्चों के साथ ही कुछ
पढ़ लेती हूं’
महिलाओं को एक बार फिर दो ग्रुप में बांटा गया
जहां एक तरफ उन्हें चर्चा करनी थी कि घर में महिला और पुरुष की स्थिति में क्या
फर्क दिखाई देता है तो दूसरे ग्रुप को यही चर्चा सार्वजनिक स्थान को लेकर करनी थी।
सबसे अहम बात ये थी कि एक स्वर में सभी महिलाओं
का कहना था कि उन्हें घर में रहना पड़ता है, बाहर जाने नहीं दिया जाता, घर का सारा
काम उन्हें देखना पड़ता है, आदमी के पास कोई काम नहीं हो तो भी वो मदद नहीं करता,
पूरा पैसा शराब में बहा देता है, ज्यादा खाना और दूध भी पुरुषों को ही दिया जाता
है।
‘गांव में एक लड़की घर से बाहर निकले तो चार
लड़के उसके साथ बाहर निकलते हैं, छेड़खानी और बदतमीज़ी करते हैं’
महिला प्रतिभागियों ने काफी बढ़चढ़ कर चर्चा में
हिस्सा लिया, ये बहुत जरुरी था क्योंकि मुझे लगता है कि असमानता से हम तभी लड़
सकते हैं जब हमें लगता है कि असमानता है और ये हमारे साथ नहीं होनी चाहिए। इन
महिलाओं में एक ललक है रुढ़िवादी परंपराओं को तोड़ने की और घर की चारदीवारी से
निकलकर खुद के लिए कुछ करने की, ऐसे में जेंडर पर आधारित ये बातचीत काफी रोचक रही।
‘मीटिंग तो बहुत अच्छी रही, हमें बहुत मज़ा आया,
मैं भी कुछ करना चाहती हूं। क्या आप अगली बार आओगे?’ एक प्रतिभागी ने पूछा
और मैं मुस्कुरा उठी ।
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