Friday, 2 June 2017

कदम मिलाकर चलना होगा: शुभारंभ



जो सबसे जरुरी बात मैं कहना चाहती हूं वो ये है कि एक औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन होती है। कभी देखा है किसी मर्द को दूसरे मर्द के खिलाफ़ बाते बनाते हुए, या उसका घर बिगाड़ते हुए।
 
ऐसा नहीं है कि ये बात मैंने पहली बार सुनी है, रोजमर्रा के जीवन में कई बार इस बात को सुना है, कई बार महसूस किया है, और अपने प्रोफेशनल करियर के बारे में सोचूं तो लगता है कि ये बात बिलकुल सटीक है। गौर करने वाली बात ये है कि एक औरत के लिए दूसरी औरत का दिया हुआ जख्म उन तमाम तरह की हिंसा से बढ़कर क्यों हो जाता है जो उन्हें किसी पुरुष ने दिया है, क्या घर की चार दीवारी में हो रही मारपीट, दहेज प्रताड़ना, अलग-अलग तरह की पाबंदिया या फिर महिला या लड़की होने की वजह से बाहरी दुनिया की चुनौतियां और उनपर हो रहे अपराध की धार कम है? क्या इस तोहमत का अस्तित्व है या ये एक पित्तसत्तामक सोच का चक्रव्यू है

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर हमने कदम मिलाकर चलना होगा कार्यक्रम का आगाज़ किया, उद्देश्य मात्र इतना था कि फिल्म के जरिए महिलाओं के बीच उनसे जुड़े मुद्दों पर बातचीत की शुरुआत की जा सके। एक बात तब से दिल को कचोट रही थी कि 20 महिलाओं में से किसी के पास खुद के लिए कोई सपना ही नहीं था ! ऐसे में काफी विचार विमर्श करने पर हमें महसूस हुआ कि कदम मिलाकर चलना होगा कार्यक्रम हर महीने आयोजित किया जाए, जहां फिल्म के जरिए महिलाओं का समूह बने ताकि वो अपने दिल की बातें, अपने दुख, दर्द, खुशी को बांट पाएं, दूसरों की बातें सुनें और अपने सपने की तलाश कर पाएं। इसके अलावा जेंडर और हिंसा पर उनकी समझ बनें और वो एक दूसरे को सहयोग करते हुए जेंडर आधारित हिंसा को चुनौती दे पाएं। 


हाल ही में मैंने नागेश कुकनूर द्वारा निर्देशित फिल्म डोर देखी और बिना कोई भी वक्त गवाएं सोच लिया कि इसी फिल्म के जरिए कदम मिलाकर चलना होगा का एक नया शुभारंभ किया जाएगा। दिमाग और दिल में विचारों, सवालों और जोश का भूचाल आया हुआ था, जितनी आसानी से इस कार्यक्रम का निर्माण हुआ था मुझे खबर थी कि इन मुद्दों पर महिलाओं से बातचीत करना उतना सरल तो कतई नहीं होगा। अगर प्रतिभागियों की बात करें तो तकरीबन हर उम्र के पड़ाव के साथी थे, कॉलेज की दहलीज पर पहुंची, पढ़ाई पूरी करने के बाद बाहरी दुनिया में अपना नाम बनाने की जद्दोजहद में जुड़ी, नई नवेली दुल्हन, छोटे बच्चों की मां, बड़े बच्चों की माता, तो 40 उम्र के पड़ाव को पार कर अपने बच्चों का घर बसा देखने वाली महिला। 
 
कार्यक्रम की शुरुआत
कार्यक्रम की शुरुआत डोर फिल्म से की गई, ये फिल्म ऐसी दो महिलाओं की कहानियां पर आधारित है जो एक डोर से बंध जाती है, जिनमें से एक चंचल, खुशमिज़ाज नई नवेली दुल्हन है तो दूसरी मजबूत, खुले विचारों वाली और आत्मनिर्भर है। दोनों के पति घर छोड़कर बाहर काम करने के लिए जाते हैं, और इसी बीच एक ऐसा हादसा होता है जो दोनों की जिंदगियों को न केवल बदल के रख देता है पर एक दूसरे के सामने ला खड़ा कर देता है। इस फिल्म में जेंडर आधारित भेदभाव, हिंसा, दोस्ती, कैसे एक महिला दूसरी महिला के खोए हुए अस्तित्व को ढूंढने और उसे हिंसा को चुनौती देने में मदद करती है- बखूबी तरीके से दिखाया गया है। इस फिल्म को देखते समय प्रतिभागियों के चेहरे के भाव भी फिल्म की पटकथा की तरह बदल रहे थे, मानो ये फिल्म के पात्रों की कहानी उनकी कहानी से जुड़ी हुई हो।



चर्चा की शुरुआत एक बेहद सरल पर अहम सवाल के साथ की गई आपका महिला होना आपके जीवन में क्या मायने रखता है सवाल सुनते ही एक अलग तरह की गुस-पुस शुरु हो गई, सभी प्रतिभागी एक दूसरे को आश्चर्य से देख रहे थे, धीमे धीमे मुस्कुरा रहे थे, इन सब की वजह पूछने पर एक ही बात सामने निकलकर आई-

महिला होने के क्या मायने है, महिला है तो महिला हैं, इस बारे में कभी सोचा ही नहीं, सोचने का मौका ही नहीं मिला, जो बताया गया वो करते रहें


कितना विचित्र सच है ये कि पूरा जीवन गुजर गया पर खुद के अस्तित्व को कभी टटोलने का मौका ही नहीं मिला क्योंकि पूरा जीवन तो आसपास के लोगों पर निछाव्वर करना पड़ा। थोड़ा सोच विचार करने पर कुछ ऐसी बातें सामने आईं।

एक औरत ही रिश्ता निभा सकती है, इसलिए उसे जननी कहा जाता है
समाज में प्रतिष्ठा बनाती है औरत
पूरे घर को संभाल कर रखती है नारी
औरत होने पर गर्व है
मां का फर्ज केवल औरत ही निभा सकती है
औरत अपने में पहले इंसान है फिर मां या कोई और, मां होना कुदरत का एक नियम है



दूसरे सवाल पर जवाब देना काफी मुश्किल था, ऐसा इसलिए भी क्योंकि सवाल निजी जीवन से जुड़ा रहा, साथ ही जवाब देने से पहले ही एक नहीं मेरे साथ ऐसा कभी नहीं हुआ वाली ढाल तान ली गई। शायद हिंसा और डिफेनसिव होना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ऐसे में मुझे लगता है कि सर्कल में बैठने का जादू कुछ निराला ही है, आप चाहे कितनी ही परतों के अंदर अपने आप को छुपा लो, लेकिन ये जादू आपको अपने आप से मिलाकर ही रहता है। एक के बाद एक प्रतिभागी ने अपने जीवन में अनुभव की गई हिंसा के बारे में बांटा, हर स्तर पर हर मोड़ पर हिंसा को सहा लेकिन सामाजिक बंधनों और झिझक के कारण कभी इस दर्द को सीने से बाहर आने नहीं दिया। 

इतने सालों से मैंने इसके खिलाफ लड़ाई लड़ी, कितना कुछ सहा लेकिन मेरे सब्र का बांध टूट गया है, जी करता है कि उसके गाल पर इतने चांटे मारूं की उसके होश गुम हो जाए।



ये सत्र काफी गंभीर रहा, न जाने कितना दर्द, दुख और तकलीफ़ सामने आई लेकिन साथ ही में उस दर्द से लड़ने के लिए बाकी प्रतिभागियों का समर्थन मिला। मैं हैरान थी कि कैसे खुशी नहीं बल्कि दर्द और आंसू संगठन की नींव तय कर रहे हैं।

ऐसे में हिंसा की परिभाषा को लेकर भी काफी बहस हुई, ज्यादातर माता-पिता और उनके बच्चों के बीच के रिश्तों को लेकर, मुझे इस बात का अनुमान था क्योंकि हिंसा को खारिज करने का सबसे बहतरीन औजार उसे नकारना ही होता है। हिंसा के अनुभव बांटने, हिंसा को समझने के बाद इस हिंसा को चुनौती कैसे दी जाए इसपर चर्चा काफी दिलचस्प रही।



मैं तो हमेशा अपने बेटे को यही समझाती हूं कि लड़कियों की इज्जत करो, लड़का और लड़की बराबर है। मेरे घर में मेरा बेटा और बेटी दोनों काम करते हैं
आगे से मैं अगर किसी महिला के खिलाफ अत्याचार होते हुए देखूंगी तो जरुर उसकी सहायता करुंगी
आसपड़ोस की लड़कियों के बारे में बातें करना आज से बंद
अपने उपर किसी तरह की तोहमत या हिंसा बर्दाश्त नहीं करूंगी

इन्हीं अहम बातों और चर्चा के बाद कार्यक्रम का समापन हुआ, लेकिन कहते हैं न समापन के बाद ही नई शुरुआत होती है, कुछ ऐसा ही मेरी आंखों के सामने हो रहा था। महिलाएं एक दूसरे से खुलकर बात कर रही थी, अपनी कहानियां बांट रही थी, एक दूसरे का दर्द सुन रही थी और हां एक दूसरे को सहयोग देने के लिए तैयार थी।



आपके साथ जो हुआ मुझे उसका बहुत अफसोस है। लेकिन मैं आपको बताना चाहती हूं कि आप बहुत बहादुर है, आप ने मुझे काफी ताकत दी है। अगर आपको किसी भी तरह की कोई भी मदद चाहिए हो तो मुझे बताइएगा मैं हूं आपके साथ।

आंखों में आंसू हमेशा दुख के नहीं होते, कभी कभी कुछ बातें दिल को छू जाती है और आंखे छलक जाती है। मेरी आंखे एक नए रास्ते को निहार रही थी, दिल खुश था और दिमाग एक नए सफर का तानाबाना बुन चुका था।

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