“धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ
होये
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होये।।”
संत कबीर का ये दोहा ‘साहस’
के वर्तमान और मेरी मनोस्थिति को बयां करने के लिए एकदम उपयुक्त है।
ऐसा इसलिए क्योंकि जिस पड़ाव पर साहस धीरे-धीरे पहुंच रहा है उसकी परिकल्पना हमने
लगभग एक साल पहले की थी। साहस के ‘जेंडर, यौनिकता और प्रजनन
स्वास्थ्य पाठ्यक्रम’ का तीसरा अध्याय ‘काउंसलर-डे’ के आयोजन के साथ सफलतापूर्वक समाप्त हुआ।
कई मायनों में काउंसलर डे साहस के लिए काफी खास
और अहम है- ऐसा इसलिए क्योंकि पहली बार काउंसलर डे का आयोजन किया गया, काउंसलिंग
की परिभाषा के विपरित किसी प्रतिभागी को उनकी समस्याओं का समाधान देने के बजाय
उन्हें खुद उसका सामना करने के लिए प्रोत्साहित किया, जहां एक तरफ कुछ
प्रतिभागियों की काउंसलिंग चल रही थी वहीं दूसरी ओर हमारे जेंडर लीडर्स और उनके
समूहों ने रंगारंग प्रस्तुति दी।
काउंसलर-डे की शुरुआत में एक जेंडर ग्रुप ने सभी
प्रतिभागियों को एक मज़ेदार खेल खिलाया। उसके बाद हर जेंडर ग्रुप को एक स्थिति दी
गई जहां उन्हें अपने ग्रुप के साथ मिलकर इस स्थिति पर आधारित नाटक प्रस्तुत करने
का आमंत्रण दिया गया। इन स्थितियों और कहानियों का उद्देश्य उनकी जेंडर और यौनिकता
पर बनी समझ को निखारना और मजबूत करना रहा। वर्कशॉप का ये समय काफी मनोरंजक रहा-
क्योंकि स्थितियां काफी पेचीदा, थोड़ी जटिल और असहज करने वाली थी, बावजूद इसके सभी
ग्रुप ने पूरे जोशो-खरोश से नाटक में रंग भरा बल्कि खुलकर अपनी यौनिकता को भी
दर्शाया।
उदाहरण के तौर पर एक नाटक के दौरान एक लड़की ने
लड़का का रोल निभाया, और दूसरी लड़की को पूरे फिल्मी अंदाज में प्रोपोज किया। दूसरी
स्थिति में एक लड़की जब अपने लड़के मित्र को दूसरे लड़के के साथ अंतरंग होते देखती
है, तो वो अपने दोस्त को चांटा मारती है। आप सोचेंगे तो क्या हुआ, ये तो समाज में
होता है क्योंकि समाज में समलैंगिकता को स्वीकारा नहीं जाता तो जवाब सुनिए-
“दीदी, लड़की इसलिए थप्पड़ मारती
है, क्योंकि वो भी लड़के को पसंद करती है और उसे लगा कि लड़का उसे धोखा दे रहा है”
‘”लड़का उसका बहुत अच्छा दोस्त
था, उसने कभी अपने दिल की बात नहीं बताई तो लड़की को लगा कि उसका दोस्त अबतक उसे
बेवकूफ बना रहा था”
“दीदी, उसे अपने दोस्त को चांटा
नहीं मारना चाहिए था, उससे बात करनी चाहिए थी। अगर वो दोनों एक दूसरे से प्यार
करते हैं तो उसकी दोस्त को कोई परेशानी नहीं होगी।”
वहीं तीसरी स्थिति में जहां मेट्रो में लड़के
किन्नर को छेड़ते और परेशान करते हैं, प्रतिभागियों ने दिखाया कि अगर उनमें से कोई
लड़की मेट्रो में होती तो वो लड़के को डांटती और किन्नर को बैठने के लिए जगह देती।
इस दौरान दो प्रतिभागियों की काउंसलिंग भी चल
रही थी- उनके साथ वन-टू वन बातचीत में उन्हें समानुभूति क्या होती है और उससे हम बेहतर
इंसान कैसे बन सकते हैं पर चर्चा की गई।
सत्र के दूसरे हिस्से में सभी जेंडर ग्रुप को
मौका दिया गया कि पहली बार वो साथ आए और बड़े गोले में प्रस्तुति दें। जहां एक
ग्रुप ने कॉमेडी शो प्रस्तुत किया तो दूसरे ने बॉलीवुड गाने से समां बांधा, तीसरे
ने लड़कियों की पढ़ाई को प्रोत्साहन देने के लिए नाटक पेश किया तो चौथे ग्रुप ने
नाटक के जरिए महिलाओं की आजादी पर रोशनी डाली।
इस दौरान एक प्रतिभागी से वन-टू वन बातचीत की जा
रही थी, ऐसा इसलिए भी की साहस की सभी वर्कशॉप गोले में आयोजित की जाती है जहां कई
कहानियां और निजी बातें निकलकर सामने आती है ऐसे में कई बार वो कुछ नए पुराने दर्द
को भी साथ लाती है- इस बातचीत के जरिए वो कैसे अपनी समस्याओं से बाहर निकले उसपर
खुलकर चर्चा की गई।
तीसरे भाग में प्रतिभागियों को पहली 10 वर्कशॉप
में दिखाई गई अलग-अलग मुद्दों पर आधारित फिल्में दिखाई गई जिससे उनकी समझ और
पुख्ता हो और अगर वो कोई सवाल पूछना चाहे तो पूछ पाएं। इस दौरान भी दो प्रतिभागियों
से अलग-अलग बातचीत की गई। इस बातचीत का मकसद उनकी समस्याओं को सुलझाना न होकर
बल्कि इन समस्याओं से खुद जूझना और खुद समाधान निकालने के लिए प्रोत्साहित करना
रहा। प्रतिभागियों ने खुलकर अपनी परेशानियों पर चर्चा की, और आगे के प्लान पर भी
रोशनी डाली।
और वर्कशॉप के अंत में जो हुआ वो मेरी जिंदगी के
यादगार पलों में हमेशा के लिए जुड़ गया।
खैर मैं इस वर्कशॉप को अंत नहीं कहूंगी
क्योंकि इन प्रतिभागियों ने मुझे एक बेहतर समाज का प्रतिबिंब दिखाया है, इनकी समझ,
भागीदारी, सीखने की चाह और कुछ करने के जज्बे ने मुझे और ताकत दी है कि साहस का
काम ऐसे ही चलते रहे- भारत के अनेको-अनेक किशोर-किशोरियों तक पहुंचे ताकि एक हिंसा
रहित समाज का सपना हकीकत की रोशनी देख पाए।
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