“लड़कियों के लिए तरह तरह की पाबंदियां होती है, कहा
जाता है कि सरकारी नौकरी कर लो, एक फिक्सड लाइफस्टाइल होगी। मैं पर्वतरोही (mountaineer) बनना चाहती थी कि लेकिन अब देखो मैं बी.एड कर रही हूं।”
“मैं कई बार घर पर पानी भरना या रोटी बनाने का काम करता
हूं तो मेरे दोस्त और भाई बोलते हैं कि तुझे भगवान ने लड़की बना दिया होता तब यह
काम करते हुए अच्छा लगता।”
साहस का मुख्य काम किशोर-किशोरियों के साथ जेंडर, यौनिकता और प्रजनन
स्वास्थ्य को लेकर समझ बनाना, उन्हें ऐसी सुरक्षित जगह देना जहां वो खुलकर अपने
सवाल, भावनाएं, विचार और अपनी बातें रख पाएं साथ ही उन्हें जेंडर आधारित हिंसा को
चुनौती देने के लिए सक्षम बनाना है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि स्कूल और घर दोनों ही
जगहों पर उन्हें इस तरह का स्पोर्ट नहीं मिलता जिसकी वजह से उनके पास उपलब्ध
आधी-अधूरी जानकारी का सहारा लेकर वो और जिज्ञासु हो जाते हैं और ऐसे फैसले ले लेते
हैं जो उनके लिए हानिकारक साबित हो सकते हैं। ऐसे में किशोरावस्था से जुड़े हर
मुद्दे पर खुलकर बातचीत करना बेहद जरुरी है। किशोर- किशोरियों के साथ साथ इन
मुद्दों को लेकर टीचर्स में भी समझ बनाना उतना ही जरुरी है क्योंकि घर के अलावा
सबसे ज्यादा समय वो स्कूल में व्यतीत होता है। किशोर-किशोरियों को जेंडर, यौन
शिक्षा, यौनिकता समेत कई मुद्दों को लेकर जागरुक तो कर दिया लेकिन जिन घरों में वो
रहते हैं या जिन स्कूल में वो पढ़ते हैं वो उसी समाज का हिस्सा है जहां इन मुद्दों
को धब्बे की तरह देखा जाता है या गलत समझा जाता है। ऐसी स्थिति उनके लिए न सिर्फ
मुश्किलें खड़ी कर सकती है बल्कि उन्हें असमंजस में भी डाल देगी। इन्हीं बातों को
ध्यान में रखते हुए किशोर-किशोरियों को एक जेंडर समावेशी वातावरण देने के उद्देश्य
के साथ इस साल साहस ने टीचर जेंडर ट्रेनिंग कार्यक्रम तैयार किया।
अगस्त के महीने में हमें उदयपुर की सबसे पुरानी और विख्यात संस्था
विद्याभवन के साथ काम करने का मौका मिला। विद्याभवन के साथ काम करना अपने आप में
काफी अहम था, पहला इसलिए क्योंकि समाज के हर वर्ग के बच्चों और युवाओं को शिक्षा
मिल सके के उद्देश्य के साथ 1931 में विद्याभवन की स्थापना की गई थी और दूसरा यहां
समय समय पर शिक्षा पद्ध्ति को एक नई राह और दिशा दी जाने की कोशिश की जाती रही है।
जाहिर है शिक्षा के ऐसे स्तंभ जो सालों साल से लोगों को आगे बढ़ाने की कोशिश में
जुटा हुआ है उसके साथ कदम मिलाकर काम करना हमारे लिए एक उपलब्धि की तरह था।
विद्याभवन के 30 बी.एड छात्र-छात्राओं के साथ टीचर ट्रेनिंग कार्यक्रम
के पहले दिन की शुरुआत ‘जेंडर’ के सत्र से की गई। सत्र में सबसे पहले हमने अपना व्यक्तिगत और साहस के
काम का संक्षेप में परिचय दिया, जिसके बाद सभी प्रतिभागियों को अपना नाम और अपनी
एक खूबी पूरे समूह के साथ बांटने के लिए आमंत्रित किया गया। गौर करने वाली बात ये
रही कि अपनी खूबी बताने की झिझक यहां भी दिखी, कुछ अनमने मन से, कुछ शर्माते हुए,
कुछ हंसते हुए और कुछ लोगों ने बेहद विश्वास के साथ अपनी बात सबके सामने रखी।
“मैं हमेशा कोशिश करती हूं कहीं भी कूड़ा-करट बिखरा न
रहे। अगर कहीं कुछ फैला मिलता है तो मैं कूड़ा उठाकर उसे कूड़ेदान में डाल देती
हूं”
“मैं गांव का रहने वाला हूं, वहां ज्यादा पढ़ाई पर जोर
नहीं दिया जाता। लेकिन मैंने पढ़ाई की, अब जब मैं गांव जाता हूं तो बाकी युवा भी
पढ़ाई करने के लिए उत्साहित होते हैं। मैं रात को कई युवाओं को पढ़ाता भी हूं”
“मैं बहुत अच्छा दोस्त या सहभागी हूं, जो मेरे साथ
रहेगा वो हमेशा खुश रहेगा”
प्रतिभागियों की ऊर्जा और फोक्स को सत्र में एकत्रित करने के लिए ‘एक ऊंगली’ का खेल खिलाया। खेल के हर स्टेप को खूब एनज्वाय करते हुए प्रतिभागियों ने
सत्र की खुशनुमा शुरुआत में भागीदारी दी।
‘जेंडर पर्ची’ एक्टिविटी में प्रतिभागियों को एक-एक पर्ची उठाकर उसमें लिखे काम/जिम्मेदारी/प्रोफेशन के मुताबिक दो अलग अलग लाइनें-
एक लड़के वाली और एक लड़की वाली लाइन बनाने के लिए आमंत्रित किया गया। पर्ची के
मुताबिक चुनी हुए जगह क्यों ली गई इसपर खुलकर चर्चा की गई मसलन कुली- तो ज्यादातर
पुरुष कुली का काम करते हैं, बच्चे की देखभाल करना- ज्यादातर
मां करती हैं आदि। इसके बाद इन्हीं पर्चियों के आधार पर प्रतिभागियों को तीन
लाइनें बनानी थी- सिर्फ पुरुष, सिर्फ महिलाएं और दोनों। एक्टिविटी के दूसरे चरण
में भी पुरुषों की लाइन लम्बी ही रही, जब प्रतिभागियों के बीच चर्चा और वाद-विवाद
हुआ तो महिलाओं की लाइन में दो लोग – महावारी और गर्भवती होना, पुरुषों की लाइन-
खाली और बाकी सभी लोग तीसरी लाइन में खड़े हो गए। इस एक्टिविटी के जरिए जेंडर
आधारित ढांचे जो हमें काम, ज़िम्मेदारी या फिर प्रोफेशन के तौर पर बताए या समझाए
जाते हैं उनपर रोशनी डाली गई।
अगली एक्टिविटी में प्रतिभागियों को 6 समूहों में बांटा गया, जहां
उन्हें ‘3 ऐसे संदेश जो लड़का या
लड़की होने की वजह से उन्हें मिले हैं’ सांझा करने को कहा
गया। इस दौरान कई काफी अहम और सोच में डालने वाले संदेश सामने आया।
“मुझे बचपन से ही हर तरह के खेल का शौक था। किसी भी खेल
का नाम लो, मेरा उत्साह चरम पर रहता था। क्रिकेट, फुटबॉल, भाग-दौड़, पतंग उड़ाना
बहुत पसंद था। लेकिन मेरे खेलने पर सब ताने मारते थे, बोलते थे कि क्या हर समय
बाहर खेलती रहती थी, लड़कों के साथ क्यों खेलती है?”
“मेरे पिताजी ने ढाई साल की उम्र में मेरी शादी कर दी
थी, मुझे पढ़ाई का बेहद शौक था। जब मैं नवीं कक्षा में आई तो ससुरालवालों ने साफ
मना कर दिया। लेकिन तब मेरे पिताजी ने मेरा साथ दिया, मुझे पढ़ाया और बाद में तलाक
भी दिलवा दिया।”
“क्यों बाहर का काम करती हो, घर का काम आना चाहिए, खाना
बनाना सीखो, ससुराल में जाकर क्या करोगी? ”
“मेरी बहन को जब अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाया गया था
तो रिश्तेदार बार बार बोलते थे कि क्या जरुरत है इतना पैसा खर्च करने की, लड़की को
तो ससुराल ही जाना है”
“जब में नवीं में फेल हुआ तो मुझे बहुत से लोगों के
ताने सुनने पड़े- बोला गया कि जो लड़कियां तुमसे कमजोर थी वो भी पास हो गई तो तुम
क्यों नहीं पास हुए?”
“जब मैंने ग्यारवीं में आर्ट्स लिया था तो लोगों ने
बहुत ताने दिए बोला ये तो लड़कियों वाला सब्जेक्ट है, बहुत आसानी से पढ़ लिया
जाएगा। और आजतक लोग मुझे यही बोलते हैं पर अब मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि
मुझे यहीं साइड पसंद थी”
“मेरे माता-पिता बहन के मुकाबले मुझसे ज्यादा प्यार
करते हैं। मेरी गलती होने पर भी मेरी बहन को ही डांट पड़ती है”
“मैं लेट होती हूं तो मुझे डांट पड़ती है मगर भाई को
कुछ नहीं कहा जाता। किसी भी काम को करने, या कहीं जाने से पहले मुझे पूछना पड़ता
है वहीं मेरा भाई सिर्फ बताकर चला जाता है”
“पापा चाहते थे कि मैं ऐसी कॉलेज में पढ़ूं जहां सिर्फ
लड़कियां हो, पर मेरी मां ने को-एड कॉलेज में मेरा दाखिला दिलवाया”
“लड़कियों को शाम के बाद घर से बाहर नहीं जाने दिया
जाता, लड़कों के साथ घूमने पर तो बिलकुल पाबंदी है”
“लड़कियों छोटे कपड़े नहीं पहन सकती, उन्हें सूट सलवार
पहनना चाहिए, चुन्नी से ढके होना चाहिए”
“लड़कियों को गाड़ी या बाइक नहीं चलानी चाहिए। मैंने जब
बाइक चलाना शुरु किया था, तो मुझे पहले ही हिदायत दी गई थी कि ज्यादा दूर मत जाना,
ऐसी जगह मत जाना जहां तुम्हे जान पहचान के लोग देख लें”
“लड़कियों को गवर्मेंट जॉब करना चाहिए, प्राइवेट नौकरी
के साथ शादी की जिम्मेदारी नहीं निभा पाएंगी”
“लड़के रो नहीं सकते, जो लड़के रोते हैं वो कमजोर होते
हैं।”
“गुस्सा होना, रौब दिखाना लड़कों को मर्द बनाते हैं,
वहीं लड़कियों को विनित और सभ्य होना चाहिए”
“लड़कियों को हर बात पर त्याग करना, हर परिस्थिति में
एडजस्ट होना, हर माहौल में समझौता करना आना चाहिए”
“परिवार वाले और समाज वाले हमेशा कहते है, समझते हैं कि
जब भी कोई गलत निगाह से देखे, छेड़खानी करें तो उससे विवाद मत करो, वहां से चुपचाप
निकाल आओ नहीं तो और बुरा होगा”
“मेकअप मत करो, बाल लम्बे रखो, बाल खुले मत छोड़ो पर
हां जब किसी फैमली फंक्शन में जाओ तो तैयार होकर जाओ क्या पता कोई तुम्हें पसंद ही
कर ले”
“पढ़ाई सिर्फ लड़कों को करनी चाहिए, लड़कियों को नहीं”
“लड़कियों को ज्यादा बाहर नहीं घूमना चाहिए”
“जो लड़के लड़कियों के साथ ज्यादा घूमते हैं, वो
अन्तर्विवाह जरुर करेगा”
“लड़के घर का काम नहीं किया करते”
“लड़कियों के साथ ज्यादा मेलजोल अच्छा नहीं है, क्या
लड़कियों की तरह बार-बार मुंह धोते हो”
“तुम लड़कियों की तरह तैयार होने में बहुत समय लगाते हो”
“डांस नहीं करना चाहिए, ये तो लड़कियों का काम है”
“मैं मेरे गांव में किसी लड़की के साथ घूम नहीं सकता
क्योंकि अगर कोई लड़की अगर लड़के के साथ घूमती है तो वो लोग उसे लड़की की
गर्लफ्रेंड समझते हैं”
“मैं किसी लड़की से कोई बात नहीं कर सकता क्योंकि मुझे
लगता है कि लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे”
“घर-परिवार का ध्यान रखने के लिए लड़के को कमाना जरुर
चाहिए, समाज में इज्जत लड़के की कमाई से बनती है”
“मैं जब नवीं क्लास में था, तब मैं एक लड़की के साथ बैठ
गया तो उसने मना करते हुए कहा कि तू क्या लड़की है”
“घर में मैं जब भी खाना बनाता हूं तो दूसरे लड़के मुझसे
कहते हैं कि तू क्या लड़की है जो खाना बना रहा है”
“घर पर एक समय सीमा तय की गई है उसी समय या उससे पहले
घर पहुंचना होता है”
“मैं इकलौती संतान हूं तो अक्सर रिश्तेदार कहते हैं कि
काश एक लड़का होता तो अच्छा होता”
“स्कूल में हमेशा आत्मरक्षा की क्लास लड़कियों के लिए
लगाई जाती है पर सभ्य होने वाली क्लास लड़कों के लिए क्यों नहीं लगाई जाती”
“महिला के सरंपच बनने पर भी उसे घर तक ही सीमित रखा
जाता है, फैसले ज्यादातर पुरुष ही लेते हैं”
“स्कूल में मास्टरजी लड़कों की पिटते हैं लड़कियों को
नहीं”
“बाजार में सब्जी लेने या सामान खरीदने के लिए लड़कों
को भेजा जाता है”
“जब हम शाम को बैडमिंटन कोर्ट में जाते हैं जो गर्ल्स
होस्टल के सामने हैं, तो हमें मना कर दिया जाता है”
“भारी सामान उठाना हो, कोई शारीरिक काम हो तो लड़कों को
ही जिम्मेदारी दी जाती है”
“लड़की हो, अकेले जा रही हो, तो संभल कर जाना; पढ़-लिखकर क्या करोगी- चूला चौका ही तो संभालना है;
जींस-टॉप, टी-शर्ट, स्कर्ट नहीं पहननी चाहिए, इसमें लड़कियां गंदी लगती हैं।”
“लड़की होने की वजह से हर बात पर रोक-टोक होती है, ऐसा
मत करो, ऐसे मत चलो, ऐसे मत बैठो, जोर से हंसो मत ये सब बातें शोभा नहीं देती”
“जब मैं गर्भवती थी, और अस्पताल में थी और मुझे लेबर
पेन हो रहा था, जब मुझे मेरे ससुरालवालों ने डांटा और कहा इतना दर्द तो हर औरत को
सहना ही चाहिए।”
इस एक्टिविटी के खत्म होने से पहले एक प्रतिभागी ने अपने जीवन का बेहद
निजी अनुभव हम सभी से सांझा किया, बोलते-बोलते उसके आंखों में आंसू थे पर फिर भी
उन्होंने हिम्मत दिखाई। ये आंसू उस वाक्ये से जुड़े दर्द के नहीं थे बल्कि एक डर
था कि अगर मैं ये बातें किसी को बताती हूं तो लोग मेरे बारे में क्या राय बनाएंगे,
मुझे किस नजर से देखेंगे। इस बात से मुझे एक बार फिर यकीन हुआ कि जो हम काम कर रहे
हैं वो कितना जरुरी है- चाहे इंसान किसी भी जेंडर पहचान का क्यों न हो, उसे हमेशा
अपनी बातें सांझा करने में भय रहता है जाहिर सी बात है जो उसके निजी और प्रोफेशनल
जीवन को हर तरह से प्रभावित करता है।
इसके बाद कानाफूसी के खेल और जेंडर कहानी की रचना की मदद से हमने
जेंडर क्या है, जेंडर आधारित भेदभाव क्या है, इस सामाजिक ढांचे को कैसे चुनौती दी
जा सकती है पर समझ बनाई। इसके अलावा हमने जेंडर और यौनिक पहचानों पर भी खुलकर चर्चा
की। जब हम यौनिक पहचानों के बारे में बात कर रहे थे तो शुरुआत में थोड़ी असहजता
रही, फिर जिज्ञासा और फिर सवालों की बरसात होने लगी।
‘आपने बताया कि गे, लेस्बियन किस के साथ रहना या संबंध
बनाना चाहते है तो किन्नर किनके तरफ आकर्षित होते हैं?’ ये
सवाल काफी दिलचस्प रहा क्योंकि एक सवाल करने की सोच का बीज डल चुका था, दूसरा इस
सवाल को लेकर हमने ये समझाने की कोशिश की – हमें ढांचे तोड़कर फिर उन्हें नए
ढांचों में डालने की जरुरत क्यों महसूस होती हैं, हमें ये क्यों जानना है कि कौन
शख्स किस के प्रति आकर्षित होता है या वो निजी जीवन या अपने बेडरुम में किसके साथ
है- इसमें हमें इतनी रुचि क्यों हैं? जाहिर है ऐसे सवाल
कौतूहलता तो बढ़ाते ही है साथ ही जेंडर पर हो रही चर्चा को एक नया आयाम भी देते
हैं।
‘मैं आपसे एक निवेदन करना चाहता हूं कि क्या आप हिजड़ा
शब्द का इस्तेमाल न करते हुए किन्नर शब्द का इस्तेमाल कर सकती है। हिजड़ा गाली सा
लगता है, हमें इन लोगों को सम्मान देना चाहिए।’ एक और
बेहतरीन चर्चा का बिंदू हमें मिला- जहां हमने बताया कि कैसे किसी की पहचान आपको
गाली लगती है पर वो उस शख्स के जीवन का अहम हिस्सा है, वो आपसे सम्मान नहीं बल्कि
चाहता है या चाहती है कि आप उसे सबकी तरह देखे, कुछ अलग है कि तरह नहीं।
इसके अलावा एक महिला प्रतिभागी ने कहा, “महिलाओं के साथ तो ये सारी
हिंसा सदियों से हो रही है, पर अब पुरुषों के साथ भी होने लगी है। हमें उसपर बात
करना बेहद जरुरी है”
कई बार वर्कशॉप का आयोजन करते समय ऐसी बातें बार बार निकलकर आती है
जहां महिलाएं कुछ ऐसा कहती है, जो मुझे सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या जेंडर
आधारित भेदभाव हमारे शरीर में खून की तरह बह रहा है कि जिनके उपर हिंसा हो रही है उन्होंने
इसे स्वीकार लिया है और समझ लिया है कि अब कुछ नहीं हो सकता, या फिर वो अपने आप को
अंधेरे में रखकर अपना जीवन झूठी खुशी में बिताने के लिए तैयार हो चुकी है। वहीं
दूसरी तरफ इस सत्र के बाद पुरुष प्रतिभागी अपने द्वारा किए जाने वाले काम का
विश्लेषण कर रहे थे, ऐसे में मैंने इस बात को पकड़ा और मन बना लिया कि इसपर अगले
सत्र में जरुर चर्चा होगी।
सत्र के बाद हुए अंतराल के दौरान हमारी सहयोगी संस्था में कार्यरत
लोगों से हमें फीडबैक के तौर पर काफी सराहना मिली।
“तुम दोनों की ऊर्जी काफी बेहतरीन है, आवाज़ बुलंद है,
और जिस तरह से आप सेक्स या कई मुद्दों से जुड़े शब्दों का इस्तेमाल बोल चाल की
भाषा में कर रहे हो वो काफी रोचक है इससे प्रतिभागियों में खुलापन आ रहा है।
प्रतिभागी खुलकर भाग ले रहे हैं, और वर्कशॉप करने का तरीका काफी मज़ेदार है। मुझे
भी काफी कुछ सीखने को मिल रहा है।”
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