Sunday, 19 February 2017

बुलंद इरादे: संगठनात्मक सत्ता, सकरात्मक सोच और आंदोलन की नई परिभाषा



तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के मन की गांठे खोलकर
कभी पढ़ा है तुमने
उसके भीतर का खौलता इतिहास
अगर नहीं
तो फिर जानते क्या हो तुम
रसोई और बिस्तर के
गणित से परे
एक स्त्री के बारे में

बुलंद इरादेवर्कशॉप में हुए अनुभव को कागज़ पर उतारने के लिए काफी जद्दोजहद हो रही थी, समझ नहीं आ रहा था कि आखिर कैसे शुरुआत करूं क्योंकि ये अनुभव अपने आप में कुछ अलग ही रहा। अक्सर ऐसा होता है कि मैं किसी वर्कशॉप में जाती हूं तो मैं एक खाली गिलास की तरह होती हूं और वहां मिल रही हर बात को आत्मसाध करने की पूरी कोशिश में लगी रहती हूं, पर बुलंद इरादे की वर्कशॉप उन मुद्दों पर आधारित थी जो मेरे दिल और अस्तितव के काफी करीब है, इन्हीं मुद्दों ने मेरे जीवन की दशा और दिशा परिवर्तित कर दिया, ऐसे में खाली गिलास होना काफी मुश्किल था। 


पहला दिन-

दिल्ली से करीब 12 घंटे का सफर करते हुए मैं पालमपुर की सुंदर और अविश्वसनीय वादियों में स्थित संभावना संस्थान पहुंची जहां बुलंद इरादे की वर्कशॉप का आयोजन किया जाने वाला था। पहले सत्र की शुरुआत में प्रतिभागियों को कॉसेन्ट्रिक गोले में बांटा गया और कुछ सवाल पूछे गए जो उन्हें अपने सामने खड़े हुए साथी के साथ बांटने थे मसलन आपका नाम और काम, आपने समाज का कौन सा नियम तोड़ा है आदि। इन सवालों की खास बात ये थी कि ये काफी अपने बारे में थे, क्योंकि अपने बारे में बात करना आसान नहीं होता अक्सर हम इस बारे में सोचते ही नहीं। एक सवाल जिसने मुझे काफी परेशान किया वो था कि कभी आपने ऐसे कपड़े पहने है जिनपर सवाल उठाए गए हो- लगभग सभी जवाबों में था कि लड़कियां जब पैंट सर्ट या छोटी स्कॉर्ट पहनती है या लड़कों ने कभी जड़ीदार कुर्ता पहना हो तो लोग सवाल उठाते हैं। वहीं मुझे बचपन से ही ढीले-ढाले कपड़े पहनना पसंद है, इस बात पर शुरु से मेरे परिजन और दोस्त मुझे कुछ न कुछ सलाह मशवरा देते रहे (आज भी देते हैं)- उन्हें लगता है कि ऐसे कपड़े पहनने से मैं और मोटी हो जाउंगी। जाहिर है हम कैसे भी कपड़े पहनने किसी न किसी को उसपर कोई न कई आपत्ति जरुर रहेगी, तो क्या हमें बदलना चाहिए या वो करना चाहिए जो हमें अच्छा लगता है?

इसके बाद हम में से कुछ प्रतिभागियों को अलग-अलग पहचान दी गई जैसे मुस्लिम महिला, दलित महिला, अमीर पुरुष आदि और हमें एक गोले में खड़े होने को कहा गया। इसके बाद स्वास्थ्य, पढ़ने का अधिकार, मकान खरीदने की आजादी और सुरक्षा के मापदंड को देखते हुए आगे बढ़ने या उसी जगह खड़े रहना था। इस प्रक्रिया के बाद काफी रोचक बातचीत हुई जहां कई लोगों ने अपनी पहचान से जुड़े डर या विशेष अधिकारों की बात की। एक अहम बातचीत में सत्ता का समीकरण सामने आया जाहिर है कि केवल महिलाओं के साथ ही हिंसा या भेदभाव नहीं हो रहा, कई बार पुरुष भी हिंसा के शिकार होते हैं अगर उनकी सामाजिक पहचान धर्म, जाति या वर्ग में निचले पायदान पर आती है। 

 
सत्ता का घेरा
सत्र की अगली प्रक्रिया में प्रतिभागियों को ग्रुप में बांटकर दो सामाजिक पहचाने जैसे धर्म और जाति दी गई और इनमें किसके साथ कभी-कभार और किसके साथ ढांचागत या व्यवस्थित तौर पर हिंसा या भेदभाव की जाती है उसपर चर्चा करनी थी। मेरे ग्रुप को यौनिकता और नस्ल सामाजिक पहचान दी गई। मुझे नस्ल आधारित हिंसा के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी लेकिन जब बड़े गोले में चर्चा हुई तो काफी नई जानकारियां मिली मसलन कैसे द्रविडियन, मोंगोलोयड्स (नॉर्थ ईस्ट) नस्ल के प्रति ढांचागत भेदभाव होता है, आर्यन नस्ल कौन है


दूसरा दिन

बुलंद इरादे के दूसरे दिन की शुरुआत सत्ता पर चर्चा के साथ हुई। सत्ता शब्द सुनते ही नकारात्मक छवि सामने आती है, मानो सत्ता का मतलब दूसरे पर धौंस जमाना, उसने नीचा दिखाना या दूसरों का दमन करना हो, साथ ही सत्ता को अपने हाथ में रखने की कभी खत्म न होने वाली जद्दोजहद दिखाई देती है। लेकिन सत्ता भी पॉजिटिव हो सकती है और वो तीन पहलू है संगठनात्मक या सामूहिक सत्ता, अंदरुनी हूनर और बाहर से जानकारी सीखकर अपनी क्षमता को बढ़ाना। इसके बाद हमें तीन ऐसी स्थितियों के बारे में सोचने को कहा गया जहां हम सत्ताधारी महसूस करते हैं और तीन ऐसी स्थितियां जहां हम सत्ताहीन होते हैं। सत्ताहीन स्थितियों के बारे में लिखना मेरे लिए काफी आसान रहा, पीड़ित की भूमिका में आना मुश्किल नहीं था शायद इसलिए भी क्योंकि लगभग हर जगह परेशानी का ही सामना किया है और सत्ताधारी होने के लिए बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है चाहे वो नौकरी हो या पारिवारिक रिश्ते हो। वहीं महाराष्ट्र से आई महज एक महिला ही ऐसी थी जो हर स्थिति में अपने आपको सत्ताधारी के तौर पर देख पा रही थी। 

अगली प्रक्रिया में गोले में खड़े प्रतिभागियों को गोले के बीचो बीच रखे किसी एक फोटो को चुनकर मर्दाना और औरताना में बांटना था। काफी मजेदार चर्चा के बाद लगभग कई फोटो बीच में आ गए क्योंकि प्रतिभागी न उन्हें मर्दाना न औरताना ढांचे में बांधना चाह रहे थे, इसी दौरान ट्रांस लोगों पर बातचीत की शुरुआत हुई। जेंडर एक अदायिगी है- हम एक भूमिका निभा रहे हैं और क्योंकि ये एक भूमिका है इसलिए इसे बदला जा सकता है- इतनी सरलता से जेंडर को परिभाषित किया जा सकता ऐसा मैंने तो नहीं सोचा था।


इसके बाद सभी प्रतिभागियों को एक कागज दिया गया था जिसमें 4 सवाल थे जैसे मैं अपने आप को लड़की मानती हूं और मुझे खाली स्थान करना पसंद है, मुझे खाली स्थान करना नहीं पसंद है। और अगर आपकी और कोई पहचान होती तो क्या करना पसंद या नापसंद होता। ये एक्टिविटी काफी रोचक होने के साथ साथ काफी गंभीर रही। लड़कियों ने हर वो काम जो उन्हें करने से मना किया जाता है करने की इच्छा जाहिर की वहीं लड़के एकदम विपरित होकर महिलाओं के हक के लिए खड़े हो गए। एक लड़की ने कहा कि अगर वो लड़का होती तो वो खुले आसमान के नीचे खड़े होकर आराम से अपने बारे में सोचती, मुझे लगा कि क्या एक लड़की होकर हमें वो आजादी नहीं होनी चाहिए कि कुछ पल जिंदगी के हम केवल अपने बारे में सोच पाए और कितना जरुरी है कि हम किसी और जेंडर के हो तभी वो इच्छाएं पूरी कर पाएंगे जो हम अभी करना चाहते हैं। इन्हीं बातों को एकत्रित करके जेंडर का डिब्बा बनाया गया, साफ पता चलता है कि हमें हिंसा सहना बचपन से ही सिखाया जाता है, कई बार पता ही नहीं होता कि ये हिंसा है, और अगर हिंसा है तो उसे नहीं सहना है- सोचिए जरा इन बातों का आत्मछवि पर कैसा प्रभाव पड़ता है?  
जेंडर का डिब्बा

इसके बाद ग्रुप में बांटकर सभी प्रतिभागियों के सामने एक वाक्य रखा जिसपर हमें अपनी राय बतानी थी- जेंडर के नियम समाज में संतुलन बनाए रखने के लिए जरुरी है। 

तीसरा दिन

बुलंद इरादे के तीसरे दिन की शुरुआत पिछले दिन दिए गए वाक्य पर चर्चा करने से हुई। हमारे ग्रुप का मानना था कि मौजूद व्यवस्था समाज में असंतुलन ला रही है जिसमें हमने एक तराजू के तौर पर दर्शाया क्योंकि महिला- पुरुष के अलावा बाकी जेंडर और यौनिक पहचानों को कोई मान्यता ही नहीं दी गई है जिनसे वो हाशिए पर आ गए हैं।




सत्र के दूसरे हिस्से में प्रतिभागियों को 5 ग्रुप में बांटा गया और एक-एक संस्था दी गई जिसमें हमें झांकी के जरिए उस संस्था में मौजूद जेंडर आधारित भेदभाव और हिंसा को दर्शाना था। नाटक के जरिए, गानों के जरिए या वाद-विवाद के जरिए इसे दिखाना मुझे काफी आसान लगता था लेकिन बिना कुछ बोले, एक जगह पर खड़े होकर अभिव्यक्ति करना काफी चुनौतीपूर्ण था। परिवार के तौर पर मेरे ग्रुप ने समलैंगिकता और उससे जुड़े रिश्ते को दिखाया। धर्म, मीडिया, कानून और शिक्षा ग्रुप ने भी काफी रोचक तरीके से हिंसा को दिखाया जिसने सभी प्रतिभागियों को सोचने पर मजबूर कर दिया।






देश के अलग-अलग राज्यों और तबकों में माने जाने वाली रीति रिवाजों पर चर्चा करते हुए इस नतीजे पर पहुंचा गया कि ये एक पेड़ की पत्तियों के समान है, वहीं धर्म, कानून, शिक्षा, राज्य, परिवार, समुदाय, मीडिया, आर्थिक और स्वास्थ्य संस्थाए पेड़ के तने की तरह है जो पित्तृसत्ता को बांधे हुए है, पर उसे मजबूती देती है जड़े जो हर तरह से महिलाओं को बंधनों में जकड़ती है जैसे मानसिकता (महिलाओं का दिमाग), श्रम (महिलाओं के हाथ- महिलाओं के काम अद्श्य है, वो खुद के काम को ही महत्व नहीं देती), प्रजनन (अपने शरीर पर अधिकार नहीं है, लड़की होने का दोष महिलाओं को दिया जाता है), यौनिकता, पैर (गतिशीलता)। और जब भी कोई इन नियमों को तोड़ता है तो महिला हिंसा का इस्तेमाल किया जाता है। पित्तृसत्ता ने महिला के शरीर को मैदान-ए-जंग बना दिया है क्योंकि हिंसा नहीं तो हिंसा का डर ही गतिशीलता को खत्म कर देता है।



चौथा दिन

महिला हिंसा और जेंडर आधारित हिंसा के बारे में चर्चा करते हुए हम यौनिकता की तरफ बढ़े- जहां प्रतिभागियों को पहले दो-दो के ग्रुप में बांटा गया और फिर चार के ग्रुप में बांटा गया- तीन सवाल दिए गए- आपको यौनिकता का एहसास पहली बार कब हुआ? ये एहसास कैसा रहा? और आपको यौनिकता के बारे में क्या संदेश मिले?  अपने अनुभवों को कागज पर उतारना बेहद आसान था, लेकिन ज्यों ही दूसरे इंसान से बात करनी पड़ी वो भी दूसरे जेंडर के साथ- डर लगा कि ये मेरे बारे में क्या सोचेगा या कोई गलत धारणा न बना ले, लेकिन धीरे धीरे 4 के ग्रुप में आकर काफी सहज महसूस हुआ। ये सत्र काफी अहम, प्रभावशाली और सहजता लाने वाला रहा, कई प्रतिभागी जो बोलने या अपनी बाते सामने रखने में झिझक रहे थे उनकी झिझकता खत्म सी हो रही थी। 



एक बार फिर प्रतिभागियों को ग्रुप में बांटा गया और अब तक सिखाए गए मुद्दों यानि जेंडर, सेक्स, यौनिकता, सत्ता और पित्तृसत्ता में क्या जुड़ाव दिखता है उसपर चर्चा करते हुए बड़े गोले में सांझा करना है। चौथे दिन तक के सफर में मुझे ऐसा लगा कि मेरी रचनात्मक शक्ति मानो वापस लौट आई है- बातों ही बातों में जब पूरे ग्रुप को लगा कि पित्तृसत्ता केंद्रबिंदू है तब हमने इस ढांचे को एक रथ का रुप दिया जिसमें जेंडर, सेक्स, यौनिकता घोड़े हैं, रथ- संस्था है जैसे मीडिया, परिवार, समाज वहीं पित्तृसत्ता सारथी है जिसके हाथ में सभी घोड़ों की रस्सी है और उसके पास महिला हिंसा और जेंडर आधारित हिंसा का चाबूक है। मुझे काफी मज़ा आया इस झांकी की रचना और इसे प्रस्तुत करते हुए। 




इसी दिन बोहरा समुदाय में होने वाली हिंसात्मक रीति रिवाज एफटीएम के बारे में वीडियो दिखाई गई, जिसे देखकर मेरी सहनशक्ति, मेरी हिम्मत ने जवाब दे दिया और जो आंसू आंखों की कैद में बंद थे, सभी सलाखों को तोड़कर बेहिसाब बहने लगे- मुझे समझ नहीं आता कि कोई कैसे कुछ दकियानूसी रीति रिवाजों और झूठी प्रतिष्ठा के नाम पर 7 साल की बच्चियों के साथ ऐसा अत्याचार कर सकते हैं। वीडियो खत्म होते ही मैं कमरे में चली गई, कुछ बात करने और सोचने की क्षमता मानो खत्म हो गई थी।

पांचवा दिन

बुंलद इरादे का पांचवा और आखिरी दिन ऐसा होगा शायद हम में से किसी ने नहीं सोचा था। दर्द, दुख, हिंसा और अत्याचार की न जाने कितनी कहानियां हर कोई अपने मन में लेकर चल रहा था, कदम कदम पर जेंडर, यौनिकता, जाति, धर्म और न जाने कौन-कौन सी पहचानों को लेकर चल रहे हम लोग अपने आप से मुखातिब होना भूल गए है, समाज के कई वर्गों के लिए तो काम कर रहे हैं पर खुद के दर्द को दरकिनार कर दिया है, पर जब आपको वो जगह मिले जहां आप सुरक्षित महसूस करते हो, जहां आप अपना दर्द कह पाए तो आसूंओं की छड़ी लग जाती है वो तकलीफ के अंगारे दिल से होकर आंखों के रास्ते निकलने को मजबूर हो जाते हैं। हर कहानी एक दूसरे से इतनी जुड़ी थी कि रोते हुए भी हम एक दूसरे का सहारा बन रहे थे।



बेहद भारी रहे इस सत्र के बाद हमने इन मुद्दों के साथ संवैधानिक अधिकारों को साथ जोड़कर देखा।
वर्कशॉप का एक सबसे बड़ा और अहम हिस्सा था आंदोलन के गीत, मैंने कई वर्कशॉप में हिस्सा लिया है और आयोजित भी की है, लेकिन पहली बार इन गीतों का हिस्सा बनकर एक नई ऊर्जा आई, गीतों को सुनना और उन्हें गुनगुना एक अनोखा अनुभव रहा।




बुलंद इरादे का हर सत्र जीवन के नए पड़ाव की तरह रहा जो एक नई सीख और एक नया जोश भरता था और संदेश देता कि अभी तो सफर की शुरुआत हुई है, आगे तो बहुत कुछ देखना, सीखना और करना बाकी है। 

हरिवंशराय बच्चन ने बहुत खूब लिखा है-
धरा हिली, गगन गूंजा नदी बही, पवन चली!

सिंह सी दहाड़कर, शंख सी पुकार कर !

रुके न तू, थके न तू ! झुके न तू, थमे न तू !

सदा चले, थके न तू ! रुके न तू, झुके न तू !”
   




  

4 comments:

  1. पूर्वी बहुत खूब,
    पढ़कर लगा कि फिर से वो पाँचो दिन जी लिए।

    राकेश खत्री, भोपाल

    ReplyDelete
  2. बहुत खुब।
    संभावना मे जा कर बहुत कुछ सीखने को मिलता है। मेरा अनुभव याद दिला दिया। आपकी लेखन कला काबिलेतारीफ है।

    ReplyDelete