आज घर का आंगन एक
बार फिर सूना हो गया, जहां पर उस मासूम के कदमों की चहलकदमी की आवाज़ें होती थी
फिलहाल वहां सन्नाटा पसरा है, लेकिन मेरा मन इस बात को मानने को तैयार ही नहीं हो
रहा कि वो चला गया, मेरी नज़रे बदहवास होकर उसे यहां वहां ढूंढ रही थी। सुबह शाम
की दौड़ भाग में मानो कहीं बचपन मेरे वजूद से बिछड़ गया था, परिवार तो है लेकिन वो
प्यार वो अपनापन महसूस करने के लिए वक्त ही नहीं बचा था। सुबह जल्दी उठो, भागम-भाग
में तैयार हो, दफ्तर में कामकाज, फिर देर शाम लौटो, खाना पीना होगा, परिवारवालों
से रसमी गुफ्तगू के बाद दिन भर की थकान का समाधान के लिए बिस्तर पर नींद के आगोश
में समा जाना ये ही थी मेरी दिनचर्या। कभी कभार सैर सपाटा हो जाता था पर एक पूरा
परिवार क्या होता है शायद ज़हन से निकल गया था।
उस दिन सुबह-सुबह मां
ने मुझे कहा कि कोई रिश्तेदार आ रहे हैं, उन्हें रेलवे स्टेशन से घर लाना है।
मैंने खींज कर कहा, “तो मैं क्या करूं, मैं क्या कोई कुली हूं तो सामान उठाती
रहूं, जिसे आना है वो खुद ही आ जाएंगे” ऐसे दो टूक जवाब देकर मैं फिर अपना काम करने लगी। लेकिन वो
मेरी मां हैं, कहां मानने वाली थी, उन्होंने साफ साफ शब्दों से हिदायत दी कि
रिश्तेदारों को लाना की ज़िम्मेदारी मेरी ही है जैसे खुश होकर लाओ, या गुस्से में
हैं। अब मां का फ़रमान था टालने की हिम्मत थी नहीं इसलिए खिन्न मन से मैं अपना काम
खत्म करके निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पहुंची। ट्रेन से मेरी भाभी और ढाई साल का
आदित्य उतरा, मैंने भाभी से पूछा कि आप कैसे घर चलोगी? ऑटो से या फिर मेट्रो से? इससे पहले वो कुछ कहती,
आदित्य अपनी तोतली आवाज़ में बोला, “ऑटो से चलेंगे।” मैं खिलखिलाकर दी, कितना तेज़ है ये बच्चा ! मैंने उसे गोद में उठाया और
मुस्कुराकर कहा, “हां बिलकुल हम ऑटो में ही जाएंगे।"
फिर जो उसने बोलना
शुरू किया तो रुकने का नाम ही नहीं लिया। रेलवे स्टेशन से घर तक के रास्ते में न
जाने कितने बार उसने आते जाते ऑटो की तरफ इशारा करके बताया कि वो ऑटो हैं, कार,
इमारतें और न जाने क्या क्या ? घर पहुंचते ही पहले उसने मोना को पुकारा( बता दें कि मोना
मेरी बहन हैं जिससे आदित्य को खासा लगाव है, पहले भी जब वो घर आया था तो मोना के
साथ ही हर समय रहा था) महज ढाई साल के आदित्य को अपने हर दादा-दादी, मां-पापा,
बुआ, चाचा और खानदान के न जाने कितने लोगों के नाम याद है। मेरे पापा को तो वो ‘’कार वाले बाबा” कहता है, ऐसा इसलिए
क्योंकि पापा से उसे डरता तो बहुत लगता है पर उसे कार से आना जाना बहुत पसंद है।
जब बारी आई खाना खाने की तो छोटे मियां की फरमाइशें भी उसी की तरह है- उसे
पूड़ियां, पराठे और पनीर खासा पसंद है। मेरी माताजी सुबह से ही उसकी फरमाइश पूरी
करने में जुटी हुई थी, जैसे ही छोटा आदित्य आया, मम्मी ने गरमा-गरमा पूड़ियां और
पनीर उसके सामने रख दी। खैर थोड़ा सा खाकर आदित्य ने घर में खूब धमाल चौकड़ी मचाई।
पहली बार एहसास हुआ कि कैसे एक अनजाना सा रिश्ता खुशी देता है, बिना किसी उम्मीद
से निभाया जाने वाले बंधन में कितना खास होता है! अगले ही दिन मेरी ताई, दूसरे भाई- भाभी आए। जिस
घर में हमेशा से शांति रहती थी, ज्यादातर टीवी पर गाने या सीरियल की आवाज़ आती थी,
उस घर में आज कोलाहल मचा हुआ था, पर ये आवाज़े मुझे तंग नहीं कर रहती थी और नाही
मैं परेशान हो रही थी, बल्कि उनके साथ मिलकर न जाने कौन सी बातों में लगी हुई थी।
पहली बार समझ में आया कि संयुक्त परिवार का मतलब क्या होता है ?
माता-पिता, भाई-बहन
के आगे भी कई रिश्ते होते है जो हमारी ज़िंदगी के अभिन्न अंग होते हैं, लेकिन कब
ये ज़िंदगी भागती दौड़ती लाइफ बन जाती है पता ही नहीं चलता। न जाने कितने साल हो
गए गांव गए हुए, अपने उस परिवार से मिले हुए, खेतों में घूमे हुए, घर के चूल्हे पर
रोटी सेंके हुए, गांव की बड़ी बूढ़ी महिलाओं के साथ बात किए हुए। उफ वो बचपन की
यादें, दादा-दादी का लाड़ प्यार, घर का आंगन, नीम पर पड़ा हुए झूला, पम्प पर
नहाना, छोटी छोटी पंचायतें लगाना, कुएं में गलती से कुत्ते को फेंकना, अपनी
शरारतों से पूरे गांव भर को परेशान कर देना। इस छोटे आदित्य ने बसंत ऋतु की तरह
मेरे पतझढ़ हो गए बचपन में फिर बहार ला दी। कांक्रीट का मकान बहुत दिनों बाद घर लग रहा
था। सच तो है बचपन जीवन का सबसे सुखद अनुभव होता है, ऐसी सूफर्ति मन में भर देता
है कि फिर जीने का मन करता है।
खैर आदित्य के जाने
का समय आ गया था, उसे गांव में अपने दादी-दादा के पास जाना था, मन तो कर रहा था कि
रोक लू, पर उसका जाना भी जरुरी था। उसके जाने का बाद मन भर आया था, आंखों से
ज़ज्बात फूट-फूटकर बाहर निकल रहे थे, ऐसा लग रहा था कि मानो कोई बहुत प्यारी सी
चीज मुझसे अलग हो गई हो! घर खाली था लेकिन मन में उसकी यादें ताजा थी...
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