Monday, 5 March 2018

मैं और तुम... और वो सर्दी की गुनगुनाती रातें..



कहां खो गई फिर से?”
नहीं नहीं... कुछ नहीं... कुछ भी तो नहीं.. सुन तो रही हूं मैं
 
इतनी जोर से उसने मेरे हाथ पर हमला किया मानो पता नहीं कौन सा बवंडर आ गया हो... ऊफ इस बेवकूफी भरी हरकत की वजह से मेरा हसीन ख्याब एकदम रफ्फू-चक्कर हो गया। ये क्या था.. सिर झटकते, आंखों को मटकाते हुए और एक लम्बी सांस भरते हुए मैंने जवाब दिया। मीटिंग के बीच में मैं ख्याब देख रही थी, क्या करुं अपने इस मन का...खैर मेरे मन का क्या दोष है... ये मौसम...सर्दी की ब्यार .. उसका एहसास दिलाते है..और एक अजीब सी गर्माहट तन बदन में सैर करने लगती है। मन तो कर रहा था कि सब छोड़छाड़ कर वापस उसके पास लौट जाऊं। काम तो हर समय चलता ही रहता है, क्योंकि ये काम तो मेरे पहचान का हिस्सा है... लेकिन उसकी याद को, उसके वज़ूद को कैसे ज़हन से अलग कर दूं जिसका पूरी साल मुझे बेसब्री से इंतजार रहता है।

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खैर लोगों की बातचीत जारी है... कुछ आवाज़े सुनाई दे रही है...पर मन बावरा यहां नहीं है.. दिल में तो गिटार बज रहा है और मेरे पसंदीदा गाने की धुन बांहों में बसने को...दिल मेरा तड़पाए...कोई तो आ जाए। ऊफ बहुत कोशिश के बात ये शब्द मेरे दिल में ही उछल कूद मचा पाए, सोचिए अगर मीटिंग के बीचो बीच ये शब्द मेरे मुंह से निकल जाते, मैं तो जहीनी तौर पर मैं शर्मिंदा टैगोर हो जाती। मीटिंग के बीचों बीच मैं उसकी यादों को याद करते हुए मुस्कुरा रही थी, सोच रही थी कि कितना समय बीत गया है हमारी मुलाकात को... कितनी देर बाद वो हसीन लम्हा आएगा जब एक दूसरे को देख पाएंगे, एक दूसरे को लम्बी देर तक बस निहार पाएंगे, एक दूसरे को छू पाएंगे, एक दूसरे में खो जाएंगे, अलिंगन में भरेंगे...वो सर्दी की रातें जो लम्बी होती है..चंद लम्हों में गुज़र जाएंगी... और ये सोचते हुए मेरे चेहरे पर एक लम्बी मुस्कुराहट तैरने लगी। मेरी साथी ने मुझे कोहनी मारते हुए एक बार फिर वर्तमान में खींच लिया.. समझ नहीं आता कि दुनिया को इश्क से इतनी मुकालफ़त क्यों है? फिर वो ख्याब ही क्यों न हो। मैंने एक गुस्से भरी खींच के साथ उसकी तरफ अंगारों वाली निगाहों से देखा ताकि वो मुझे मेरे हाल पर छोड़ दे पर कहते है न जमाने को इश्क से क्या मतलब? दूसरे ही पल मुझ पर उसने सबके सामने सवाल दाग दिया। वो तो खैर है भगवान का, कि काम और मेरा वज़ूद कुछ अलग नहीं है..तो सवाल रुपी तीर से तो मैं बच गई लेकिन दिल में कौंध रहे प्यार की लहरों को थोड़ा शांत करके मैंने अपना पूरा ध्यान मीटिंग की तरफ केंद्रित कर लिया। 
 
मीटिंग खत्म हो गई, लेकिन ऊफ ये बातें खत्म ही नहीं हो रही, एक के बाद एक बात पर चर्चा छिड़ रही थी, कुछ लोग अपनी बातें बता रहे थे, कुछ सुना रहे थे, कुछ ज्ञान बांट रहे थे तो कुछ दिमाग की बत्ती बुझा रहे थे, मन तो कर रहा था कि काश एक जादूगर होता जो मुझे यहां से रफ्फू चक्कर कर देता। बहुत खींचतान के बाद मुझे बातों के समुंदर से आज़ादी मिली...मैं तेज़ कदमों के साथ अपने घर की तरफ लगभग दौड़ रही थी, सांसे तेज़ हो रही थी, दिल इतनी ज़ोर से धड़क रहा था कि आसपास के लोग मेरी धड़कन को भूकंप की आहट के तौर पर भी समझ सकते थे, लेकिन मेरे कदम मेरे दिल की तरह बेकाबू हो रहे थे, नतीजा घर से चंद कदम दूर मैं चलते चलते...धड़ाम करके गिर पड़ी!!! एक हाथ आगे बढ़ा मदद के लिए पर शर्मिंदगी की इंतेहा इतनी थी कि बिना कुछ कहे खड़ी हो गई..और फिर धड़ाम...मेरा चेहरा लाल हो गया, बैग एक तरफ..मोबाइल दूसरी तरफ और मैं कहीं और पाई गई। बताइए इश्क इंसान को कितना गिरा देता है (ये बस तकिया-कलाम है)

थोड़ी देर में लोगों को हुजूम जुड़ गया मानो सच में भूकंप आ गया हो...मैंने इस बार बड़े ही तहज़ीब से अपनी तशरीफ़ उठाई क्योंकि अगर इस बार गिरी तो मैं अपना मुंह खुद को कभी नहीं दिखा पाती। अपना बिखरा हुआ बैग, टूटते टूटते बचा फोन, और खुद को बटोरते हुए बड़ी हिम्मत के साथ उठी, मन ही मन विचार कर लिया था कि ख्याली पुलाव न बनाते हुए वर्तमान में ध्यान रखते हुए चलूंगी क्योंकि एक मुलाकात तो घर में होनी ही है...दूसरा अगर ये ढांचा ही नहीं बचा तो मुलाकात क्या खाक होगी।

ऊफ उठते ही समझ में आया कि गोया प्यार तो अच्छा है लेकिन उससे बेहतर से बिना गिरे चलना क्योंकि तशरीफ़ बहुत दर्द कर रही थी, हाथ और पैर छील चुके थे, हे भगवान एक तरफ से मेरा नया कुर्ता भी फट गया था। शर्मिंदगी ने एक बार फिर मुझे अपनी बाहों में जकड़ लिया, मैं बिना यहां वहां देखे, सरपट अपने घर की तरफ तेज़ कदमों से बड़ी, अब एक और चिंता सता रही थी कि इस हाल में उससे कैसे मिलूंगी? क्या बेवकूफी है, कोई भी काम बिना गिरे पड़े होता ही नहीं है मुझसे- मेरे दिल ने एक बार फिर मुझे जोरो से कोसा... ख्यालों को झटका तो पता चला कि घर के दरवाज़े के सामने में कुछ 5 मिनट से खड़ी हूं और मम्मी बार बार अंदर आने के लिए कह रही थी। बिना कुछ कहे मैंने सीधे अपने कपड़े उठाए और बाथरुम में जाकर अपने आपको दुरुस्त किया। 

चेहरे पर ठंडे पानी के छींटे, एक के एक बूंद चेहरे से नीचे उतरते हुए दिल में हलचल मचा रही थी, शीशे में बौखलाहट से भरा चेहरा, दिल में मचे तूफान को छुपा नहीं पा रहा था...इस ठंड में उसके एहसास की गर्माहट को महसूस करने के लिए मेरा दिल मचल रहा था.. अब हमारे बीच बस बाथरुम की ये बेरंग दीवार, गैलरी और मेरे कमरे का दरवाजा था। 

धड़कते दिल, बहकते कदमों और लगातार सांसों के संघर्ष के साथ मैं एक एक कदम आगे बड़ा रही थी, आज न जाने कितने महीनों और दिनों के बाद हम एक दूसरे के साथ होंगे, न मौसम की कोई बंदिश होगी, न मेरी मां की सफाई के ताने, न मेरे पिता जी के काम को समेटने की जल्दी..बस मैं और वो... हां वो और मैं...मैं और वो...ज़िंदगी की ये खुशी उस लज़ीज खाने से भी ज्यादा है जिसे खाने से पहले मुझे मेरे शरीर के लिए इतना रोका और टोका जाता है, समुद्र के पानी से भी ज्यादा है जहां मैं एक मछली बन जाती हूं, उस सैकड़ों मील आज़ाद आसमान से ज्यादा है जहां मैं उड़ना चाहती हूं और हां उससे भी ज्यादा है जो खुशी मुझे शायद वर्ल्ड टूर करके मिलेगी।

वो खुशी मेरे कमरे में सौ वॉट के बॉल्ब से भी ज्यादा रोशनी बिखेरे हुई थी, मैं उसे एकटक देख रही थी, उसके दीदार ने मेरे दिल के दर्द, तशीरफ के दर्द (बाकी दर्द कुछ कुछ ज़िंदा थे) को बहुत कम कर दिया था...वो भी शायद उसी खुशी से लबरेज था। इस लम्बे में पूरी कायनात बस मेरी थी...क्योंकि वो मेरे सामने था, काफी समय तक हम एक दूसरे को निहार रहे थे...लेकिन इससे पहले मैं उसे छू पाती मेरी माताजी की आवाज़ ने एक बार फिर मेरे इश्क और मेरे बीच में दीवार खड़ी कर दी।

फिर खो गई...क्या बात है..कहां है तेरा दिमाग...ये कुर्ता कैसे फट गया...हाथ-पांव छील गए..हे भगवान क्या फिर गिर गई...संभल के नहीं चल सकती

एक साथ मेरी माताजी ने हजार सवालों की गोलियां मेरे पर दाग दी, मैंने बड़ी शिद्दत के साथ उसे देखा फिर बेरुखी से अपनी माताजी को घूरा। छोटे छोटे कदमों के साथ कमरे से बाहर निकलते हुए अपनी आंखों के अंगारों को खूद के दिलों में दफना दिया और एक नकली मुस्कुराहट के साथ कहा, क्या मां इतने सवाल पूछती हूं, गलती से गिर गई थी, कुर्ता तो बहुत पुराना हो गया इसलिए फट गया। आप कुर्ते से प्यार करती हो या मुझसे?”

मेरी मां को मेरे सवाल जैसे सुनाई ही नहीं देते, खैर उनकी गलती नहीं है ऐसा लगता है माता-पिता की हॉबी होती है सिर्फ बातें सुनाना और फटकारना। एक लम्बी डांट और ज्ञान भरे लेक्चर के साथ मैंने अपना खाना खत्म किया और प्लेट किचन में रखते ही चुपके से अपने कमरे की तरफ बडी ही थी कि अब पापा ने टोक दिया। हे भगवान, इश्क के इतने दुश्मन क्यों है, मैंने ऊपर देखते हुए एक बार फिर भगवान को कोसा।

देखो, मैं समझता हूं कि बहुत काम है, कई बार रात रात भर तुम्हे काम करना पड़ता है, तुम्हारा दोस्त भी आया हुआ है...लेकिन सुबह की दौड़ से तुम पीछे नहीं हट सकती। रात को जल्दी सो जाना, सुबह 6 बजे से पहले ग्राउंड में पहुंचना है

ऊफ कौन कहना है रिटायर होने के बाद आर्मी वाले बदल जाते हैं...मेरे पापा किसी हिटलर से कम नहीं है...मैं और दौड़ एकदम सूरज और चांद की तरह है। लेकिन बिना बहस किए मैंने हामी भर दी..और फिर उसके पास पहुंच गई। हम दोनों एक बार फिर एक दूसरे को निहार रहे थे, समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है...इतने दिनों के बाद एक दूसरे को देखना जितना आसान था उतना मुश्किल भी...मैंने कदम बढ़ाते हुए उसे छुआ...कितना नरम था ये एहसास..इस एहसास के लिए मैं तो पूरी दुनिया को छोड़ सकती हूं...ठंड के मौसम में ये अलिंगन जितना ठंड था...धीरे धीरे वो गर्माहट में तब्दील हो रहा था...और मदहोशी का आलम छा रहा था...हम दोनों एक दूसरे की बांहो में समाए हुए थे, धीमी रोशनी से मेरा कमरा नहाया हुआ था, और बैकग्राउंड में मेरा पसंदीदा गाने की धुन बज रही थी। 

मैंने उसके मुलायम एहसास को अपने होठों से छुआ...अपनी बांहो में जकड़ा...अपने सीने से उसे कस लिया जैसे मैं कभी उससे अलग नहीं होना चाहती, मैं उसमें और वो मुझमें ऐसे समाना चाहते थे जैसे कोई कल है ही नहीं...हम एक दूसरे से लिपट रहे थे...एक दूसरे को अपने होने का एहसास दिला रहे थे...उस दूरी को ...उस अलगाव की यादों को एक दूसरे के जहन से मिटाने की कोशिश कर रहे थे...एक दूसरे के लिए हम कितने मायने रखते है वो हर पल जो बीत चुका था उसकी कमी इन चंद लम्हों में पूरा करना चाहते थे। इस रात में हर बढ़ता कदम हमारे जीवन में एक दूसरी की अहमियत जताने और दिखाने में बीत रहा था...ये हसीन रात कितने महीनों बाद आई है। ये मिलन इस कुदरत के करिश्मे की वजह से ही तो है।

उसकी गर्माहट में...उसके मखमली आलिंगन में कब मेरी आंख लग गई पता ही नहीं चला... 

ऊफ मैं और मेरी रज़ाई..और सर्दी की पहली रात...

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