साहस शुरु करने से कुछ समय पहले और बाद का एक
पूरा साल काफी जद्दोजहत से भरा रहा, दिल और दिमाग में हजारों सवाल उमड़ते रहते
हैं, कई बार ऐसा लगता है कि मैं अपने काम को और कैसे बेहतर करुं, क्या
किशोर-किशोरियों के और भी मुद्दे होंगे जिनके बारे में हम बात नहीं करते, क्या मैं
अपने जीवन में इन बातों को पूरी तरह ढालने में कामयाब हो पाई हूं जिसके बारे में
अलग-अलग उम्र के लोगों के साथ बातचीत करती हूं। मुझे अच्छा लगता है कि ये सवाल
मेरे मन में उठते हैं, और इन पर मैं मंथन भी कर पाती हूं क्योंकि अगर मैं ही अपने
काम पर सवाल नहीं उठा पा रही और सब एक धारा में बह रहा है तो इसका केवल एक ही मतलब
है कि साहस का काम एक ढांचे में बंध गया है और वो आगे नहीं बढ़ रहा है।
सवाल उठाने की ये क्षमता शायद मेरे में कहीं
छुपी हुई थी, कभी कभार वो सामने भी आती थी लेकिन इस क्षमता को तराशने का काम
क्रिया द्वारा आयोजित ‘यौनिकता, जेंडर और अधिकार इंस्टिट्यूट’ ने किया। मुद्दों पर समझ के साथ साथ मैं 30 ऐसी
महिलाओं से मिली जिन्होंने समाज के न जाने कितने रुढ़िवादी ढांचों को धवस्त किया
और अपनी एक पहचान बनाई। इसके बाद से मुझे हमेशा ऐसा लगता रहा कि नारीवादी सोच की
महिलाओं को एक समुदाय बनाना चाहिए (ऐसे कई समुदाय हैं लेकिन वो अलग-थलग होकर काम कर
रहे हैं) जहां हम लोग एक
दूसरे से बात कर पाए, एक दूसरे का सहयोग कर पाए और पितृसत्ता को चुनौती देने की
लड़ाई को एक धार दे पाए।
और मेरी इसी सोच को उस समय उड़ान मिली जब क्रिया
ने अगस्त में ‘यौनिकता, जेंडर और
अधिकार इंस्टिट्यूट’ एलुमनाई मीट का आयोजन किया, जिसमें 2007 से लेकर इस साल यानि 2017 में हिस्सा
लेने वाले प्रतिभागियों को आमंत्रित किया गया। मैं इंस्टिट्यूट में हिस्सा लेने के
लिए काफी उत्साहित थी, पुराने दोस्तों से मुलाकात होगी, सवालों के जवाब मिलेंगे,
जेंडर और यौनिकता को लेकर मेरी समझ में और बढ़ोतरी होगी और हां पुराने
प्रतिभागियों से मिलना मानो अपने सीनियर्स से मुलाकात जैसा होगा- उत्तर भारत में
संस्थाएं कैसे काम कर रही हैं पता चलेगा। वाह! लेकिन पिछले बार की तरह इंस्टिट्यूट मेरी सोच और
समझ से काफी आगे निकला, प्रतिभागी के तौर पर मेरा अनुभव बहुत ही अलग रहा, अलग
इसलिए क्योंकि इस अनुभव को बांधने के लिए कोई उपयुक्त शब्द समझ नहीं आ रहा। मैंने
अलुमनाई मीट के दौरान भी कहा था, “ऐसा लग रहा है कि वर्कशॉप के अलग-अलग सत्र मेरी
जरुरतों को सोच कर रखे हैं”
एलुमनाई मीट की शुरुआत हुई कुछ सवालों से जो एसजीआरआई
की मॉनिटरिंग प्रोसेस का हिस्सा थे जैसे भावनाओं में क्या बदलाव आया, सोच और
विचारों में बदलाव, जरुरतों में बदलाव, क्या आपके जीवन में कुछ लोग आएं जो
भावनाओं, सोच और जरुरतों में बदलाव से जुड़े हुए हैं, एसजीआरआई के बाद क्या अच्छी
चीजें हुई हैं और क्या चुनौतियां जीवन में आई। इन सवालों के जवाब हमें लिखकर एक
टाइमलाइन वाले चार्ट पर चिपाकाने थे और वर्कशॉप के तीसरे दिन अपने सफर को देखना
था।
पहला सत्र राजनैतिक, धर्म, जाति, यौनिकता,
जेंडर, सांस्कृतिक, सामाजिक पहलुओं में क्या बदलाव आया है, और इन पहलुओं पर
क्या-क्या चर्चाएं होती हैं पर आधारित रहा। सभी प्रतिभागियों को अलग-अलग समूह में
बांटा गया ताकि वो इस सवाल पर चर्चा कर सकें। हमारा समूह काफी अतरंगी था क्योंकि
यहां ऐसे प्रतिभागी थे जो करीब 15 साल से ज्यादा सामाजिक क्षेत्र में काम कर रहे
थे, कुछ ऐसे जो पिछले 2-3 सालों से जेंडर आधारित काम के साथ जुड़े हैं और कुछ ऐसे
जो इस काम को शुरु करना चाहते हैं, जाहिर है कि हमारे समूह की चर्चा काफी दिलचस्प,
अलग-अलग विचारों और अनुभवों से सजी हुई थी। हमने शुरुआत राजनीति से की और हैरानी
की बात है कि हमारी ज्यादातर चर्चा राजनीति को ही लेकर रही क्योंकि पहले से लेकर
अबतक इस बात को झुठलाना असंभव है कि ‘निजी ही राजनीतिक है, और राजनीतिक ही निजी है।’
चर्चा के अहम बिंदू थे- शुरुआती समाज में
राजनीति पढ़े लिखे लोगों तक ही सीमित थी, गांववालों में , किसानों में, आदिवासियों
में राजनीति को लेकर चर्चा कभी नहीं होती थी, माहौल ऐसा था कि एक परिवार की तरफ से
एक ही पार्टी को वोट दिया जाता था वहीं अब एक ही परिवार में अलग-अलग संगठनों को
समर्थन मिलता है, सोचने और समझने की शक्ति कुछ हद तक सीमित हो गई है, पहले
राजनैतिक दलों में सहयोग की भावना होती थी वहीं अब सत्ता का उनमांद ज्यादा दिखता
है, राजनीति से जुड़ाव होने का प्रभाव इस्तेमाल करके फायदा उठाया जाता है मसलन
शिक्षा के क्षेत्र में अगर किसी के नम्बर कम आएं हैं तो राजनैतिक जुड़ाव का फायदा
उठाते हुए कॉलेज में दाखिला लेना, वोट और जाति की राजनीति का प्रभाव फैल रहा है।
सबसे अहम बात ये कि निजी जीवन में दखलादांजी
शुरु हो गई है कौन क्या खाएगा, पीएगा, किस साथी के साथ रहेगा में भी राजनीति हो
रही है, वहीं डर की राजनीति ने अपनी पैठ बना ली है।
एक अहम बात ये हैं कि आज की राजनीति सोशल मीडिया
का इस्तेमाल बहुत अच्छे तरीके से कर रही है, जो युवाओं में अपनी जगह बनाने की एक
मुहिम जैसा है, साथ ही एक बहुत मजबूत एजेंडा जैसे राष्ट्रवाद को लेकर काम हो रहा
है। पंचायत, आंगनवाड़ी यहां तक की स्कूल में पार्ट टीचर तक राजनीति पहुंच गई है,
सत्ता के बदलाव का असर सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाओं पर गाज की तरह
गिरा है, माहौल एकदम एकछत्र राज जैसा बन गया है जहां एक ही राजनैतिक पार्टी का
दबदबा कायम है, धर्म को लेकर होने वाली राजनीति का उदाहरण बंगाल में रामनवमी
मनाना, झारखंड में धर्मांतर बिल, योग का बोल बाला आदि से साफ झलकता है, यहां तक की
मनोरंजन क्षेत्र में भी राजनीति घुस गई है, जहां कुछ अभिनेता राष्ट्रवाद का मुद्दा
उठाकर ही फिल्में बना रहे हैं लेकिन अगर खुले दिमाग से देखा जाए तो ये वहीं
अभिनेता है जिन्होंने ऐसी फिल्मों में काम किया है जो महिलाओं को मात्र सेक्स
ओबजेक्ट समझती है।
एक और अहम बात ये है कि भले ही पंचायत चुनावों
में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण दिया गया है, और वो जीत कर संरपंच भी बन जाती है
लेकिन ज्यादातर फ़ैसले सरपंच पति लेते हैं, ये महिलाओं सामाजिक संस्थाओं के साथ
बैठकर उनके मुद्दे समझती है लेकिन मंच से बिलकुल विपरित बोलती है। सरकार कई
योजनाएं बना रही है मसलन स्वच्छ भारत जहां वो एक बार फिर महिला के सुरक्षा के नाम
पर बाजारवाद और राजनीति को बढ़ावा दे रही है।
अगर धर्म की बात करें तो यहां भी मीडिया ने काफी
पैठ बनाई है बात तो वॉट्सेप मैसेज की, न्यूज की या फिर सोशल मीडिया की, धर्म का
बोल-बाला एकदम बाजारवाद के रुप से मिल गया है, धर्मगुरूओं ने लोगों की जिदंगियों
पर कब्जा कर लिया, माहौल ऐसा ही लोग धर्मगुरुओं के लिए मरने और मारने पर तुल गए
है, इन लोगों के पास इतना पैसा और ज़मीन है कि व्यवसायी भी पीछे हो जाए और ऐसा
मात्र हिंदू धर्म से नहीं है, शिलौंग में सबसे बड़ी मस्जिद का निर्माण किया गया
है, मुस्लिम वक्फ़ बोर्ड हो या ईसाई समाज सबके पास धन और ज़मीन की कोई कमी नहीं
है, धर्म कंट्टरपंथियों ने ऐसा जाल बुना है कि लोगों को धर्म के सिवाय कुछ दिख
नहीं रहा है और इसी से हिंसा को बढ़ावा मिल रहा है।
इसके अलावा हमने जेंडर और यौनिकता को लेकर भी
चर्चा की- मसलन यौनिकता को लेकर कभी चर्चा नहीं की जाती थी लेकर अब लोग इस मुद्दे
पर चर्चा कर रहे हैं, पहले शब्द नहीं थी एक चुप्पी थी, इस बारे में बात करना किसी
बड़े गुनाह से कम नहीं था उस माहौल में दरार पड़नी शुरु हो गई है।
वहीं दूसरे समूहों ने भी कई अहम बिंदू सामने रखे
जैसे इस दौर में अकेले बात सामने रखना काफी मुश्किल हो गया है, एक फोरम में बात
करना आसान है। खुलकर विरोध दिखाना, जुलूस निकालना दिक्कतों से भर गया है। हर जगह
एक निगरानी और कंट्रोल का माहौल है, राजनीति को खून के साथ नसों में भरा जा रहा
है, धार्मिक पहचान की सत्ता बढ़ रही है, धर्म का बाजारीकरण बढ़ गया है, किस देवता
की पूजा करते हैं उसपर भी वर्गीकरण हो रहा है, निजी और संवेदनशील मुद्दों में
राजनीति, धर्म को ढाल बनाकर हमला किया जा रहा है। संस्कृति में जो चीजें
मौच-मस्ती, मनोरंजन को लेकर होती थी उन्होंने एक ढांचे का रुप ले लिया है जिससे गुट
बन गए हैं। अपनी पहचान को बनाए (धार्मिक, सामाजिक आदि) रखने की जद्दोजहद हो रही है,
इसके साथ ही शैक्षणिक संस्थान, किताबों में राजनैतिक छेड़छाड़ हो रही है।
उदाहरण के तौर पर किताबों में सेक्सिज़म को
सामान्य बताया जा रहा है, मेडिकल की किताबों में यौनिकता को लेकर भ्रांतियां हैं
जैसे समलैंगिकता एक बीमारी है और उसका
उपचार हो सकता है आदि। देश नफरत की राजनीति से जूझ रहा है, आर्थिक गुलामी की तरफ
ढकेला जा रहा है, ऐसा लगता है मानो अपना शरीर भी अपना नहीं है। जेंडर बजट का
इस्तेमाल राजनैतिक योजनाओं के निवारण के लिए किया जा रहा है। बार बार आदर्श छवि पर
जोर दिया जा रहा है जिससे महिलाओं की आजादी और उनकी सोच पर लगाम कसने की कोशिश की
जा रही है।
ये सत्र काफी सोच विचार, वाद-विवाद और गंभीरता
से भरा हुआ रहा। इसके बाद दो प्रतिभागियों ने अपने जीवन से जुड़े अनुभवों को सभी
लोगों के साथ बांटा, ये पहली बार हुआ है कि जब हम वर्कशॉप में निजी जीवन के बारे
में इतनी गहराई से बात कर रहे थे। समझ में आया कि सभी के अनुभव, चीजें देखने का
नजरिया कितना अलग है, ये भी समझ में आय़ा कि भले ही इरादा सही हो लेकिन अगर उसे
बताने का, जताने का तरीका सही नहीं है तो वो इरादा अपने मकाम तक नहीं पहुंचेगा।
दूसरा सत्र रेणू जी ने लिया जो लखनऊ में स्थित
आली नाम की संस्था से जुड़ी हुई है और राइट टू च्वाइज़ को लेकर काम करती है।
उन्होंने कानून के क्षेत्र में किए उनके काम से जुड़े अनुभवों को बांटा, कई केस के
बारे में विस्तार से चर्चा की। उन्होंने अपने काम से जुड़े संघर्ष के बारे में भी
बातचीत की उदाहरण के तौर पर कैसे उनकी आलोचना की जाती थी, उनके काम को नीचा दिखाया
जाता था आदि। इसके साथ ही उन्होंने एक बार फिर बात उठाई कि कैसे लड़कियां भी
लड़कों की तरह कानून का गलत फायदा उठाती है (हालांकि इस बात से मैं ज्यादा
इत्तेफाक नहीं रखती)
रात को हमने शबाना आज़मी और नसरुद्दीन शाह
अभिनित फिल्म स्पर्श देखी।
एलुमनाई मीट का दूसरा दिन चयनिका शाह के सत्र ‘कानून, जेंडर और यौनिकता’ से शुरु हुआ जहां उन्होंने
498 ए, बलात्कार, लव-जिहाद, निजी कानून, 377, पोस्को और बाल विवाह के कानून को
लेकर चर्चा की शुरुआत की। ये सत्र भी सवाल के साथ शुरु हुआ- कानून का इस्तेमाल
करते समय क्या हमारे अंदर कभी कोई धारण आती है जैसे क्या हम सामाजिक नियम के बारे
में सोचते हैं? इन मुद्दों पर चर्चा हो रही
थी कि ट्रिपल तलाक पर कोर्ट का फैसला आया जहां 2 जज ने ट्रिपल तलाक को असंवैधानिक करार
दिया। ये बहुत समय बाद है कि सुप्रीम कोर्ट ने धर्म से जुडे एक मामले में
हस्तक्षेप किया और उसे संविधान से जोड़ते हुए असंवैधानिक करार दिया।
इस खबर के बाद शादी से जुड़े कानूनों पर विस्तार
से चर्चा की गई, जिसमें मुझे पहली बार पता चला कि स्पेश्ल मैरिज एक्ट क्या होता है
और उसका इस्तेमाल कब किया जाता है। वहीं चर्चा में एक रोचक बात ये निकलकर आई थी
मुस्लिम निकाह ज्यादा प्रगतिशील है क्योंकि यहां लड़के और लड़की दोनों की सहमति
मांगी जाती है और ये शादी एक कॉन्ट्रेक्ट की तरह होती है (निकाहनामा में अपने
मुताबिक लड़की शर्तें जोड़ सकती है) और इसी को आधार बनाकर मशहूर वकील इंद्राजय
सिंह ने कहा था कि निकाह में रज़ामंदी ली जाती है तो तलाक एकतरफ़ा क्यों है?
इसके बाद विरासत/संपत्ति के कानून पर चर्चा
की गई जहां चयनिका शाह ने मैरी रॉय का उदाहरण दिया, केरला में सीनियर हैरीटेज
कानून था जहां पिता की मौत के बाद बेटी को महज 5000 रुपए दिए जाते हैं और बाकी जायदाद
बेटे के नाम हो जाती है। मैरी रॉय के तलाक होने के बाद वो अपने मायके में आ गई थी
जहां उनके भाई ने उन्हें घर से निकालने की कोशिश की। उन्होंने इस कानून को सुप्रीम
कोर्ट में चुनौती दी जहां कोर्ट ने कहा कि वो इस संपत्ति कानून को असंवैधानिक तो
करार नहीं कर सकते हैं पर वो जमीन में हिस्सा ले सकती है क्योंकि ये कानून पुराना
है और पुरानी सरकार का है जो अब मायने नहीं रखता यानि इस कानून को हटाया जाता है
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने परिवारिक कोर्ट कानून में दंखालदाजी करने से इनकार कर
दिया।
ये देखने वाली बात है कि न्यायिक व्यवस्था कैसे
धार्मिक प्रैक्टिस के खिलाफ जाने से बचती है लेकिन ट्रिपल तलाक में ये दोनों
व्यवस्थाएं एक दूसरे के आमने सामने खड़ी थी।
इस सत्र में एक अहम बात जो सामने आई वो ये थी कि
अगर आप के पास विशेषाधिकार है, आपको समाज से मान्यता प्राप्त है मसलन ब्राहमण,
शादीशुदा महिलाएं आदि तो इन्हें समाज की व्यवस्थाओं के खिलाफ सवाल उठाने चाहिए और
ऐसे लोगों का सहयोग करना चाहिए जिनके पास ये सत्ता नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि
सत्ता में बैठे लोगों की बात को अहमियत दी जाती है, उनकी बातों में वजन होता है और
वो
दूसरों को अधिकार दिला सकते हैं।
सत्र की समाप्ति बड़े रोचक कथन से हुई, “बुरा होना अच्छा है,
क्योंकि कई बंधन टूट जाते हैं, ये मुश्किल है पर जरुरी है।”
दोपहर का सत्र ‘लेखन’ पर आधारित रहा, ये कहने की
बात नहीं लिखने की बात है कि मुझे ये सत्र काफी पसंद है। शॉल्स ने सत्र की शुरुआत
फ्री राइटिंग से करवाई, हमें एक हिंदी और एक अंग्रेजी का शब्द दिया गया, जिसे लेकर
हमें 10 मिनट तक जो हमारे दिमाग में आए बिना सोचे समझे कागज़ पर उतारना था। काफी
मज़ेदार था ऐसे लिखना- कुछ प्रतिभागियों ने खुले मन से सभी के साथ अपनी फ्री
राइटिंग बांटी- कुछ ने अपने जीवन के बारे में लिखा, कुछ ने कविता लिखी, तो कुछ ने
दिलो-दिमाग में चल रहे उन विचारों को लिखा जिसे उन्होंने अभी तक किसी के साथ नहीं
बांटा था।
इसके बाद हमें कबीर का एक दोहा दिया गया इसे
आधार बनाकर हमें एक कहानी लिखनी थी – अपने जीवन से जुड़ी कहानी, दोहा था “भला हुआ मेरी गगरी फूटी,
मैं पनिया भरने से छूटी, मेरे सिर से टली बला।”
काफी मज़ेदार था कहानी लिखना, एकदम मानो उसी
कहानी में एक बार फिर किरदार बनकर जीना जो दिल में एक टीस की तरह चूभती है पर उस
कहानी का अंत इतना सुखद है कि सब खाव भर जाते हैं। कहानी लिखते समय कई प्रतिभागी
भावुक भी हुए, कुछ लोग बिखर गए, लेकिन उस दर्द से झूझना कितना जरुरी था वो तब पता
चला जब सबने एक एक करके अपनी कहानियां बांटी। हर प्रतिभागी की कहानी एक दूसरे से
इतनी अलग थी, कितनी भावनाओं और संघर्षों से भरी हुई थी, हर कहानी को सुनकर अपना
दर्द बिलकुल बेवकूफाना लग रहा था, खुद को बोना सा महसूस कर रही थी पर साथ ही समझ
आया कि दर्द से रुबरू होना कितना जरुरी भी है।
हम सभी ने ये पूरी शाम निजी अनुभवों को बांटने
में बिताई, एक दूसरे को सुना और बस सुना।
तीसरे दिन की शुरुआत सौमित्र पाठक के सत्र “मानसिक स्वास्थ्य” को लेकर हुई जहां हमने
महाराष्ट्र और गुजरात में उनके काम के बारे में जाना, साथ ही मानसिक स्वास्थ्य और
मानसिक बीमारी का फर्क भी समझने की कोशिश की।
इसके बाद रत्नाबोली रे ने “मानसिक स्वास्थ्य और
यौनिकता” पर आधारित सत्र
लिया जहां कोलकता में चल रहे उनके काम के अनुभवों को बांटा और मानसिक स्वास्थ्य को
लेकर भ्रांतियों पर चर्चा की। इस दौरान परिवार और माता-पिता की परवरिस की बात
सामने आई। ये चर्चा मेरे लिए काफी जरुरी थी क्योंकि मुझे ऐसा लगता है कि माता-पिता
जो भी हमें सीखाते हैं उनका इरादा भले ही सही हो लेकिन बातचीत का तरीका बहुत
अलग-अलग तरीके का होता है जिससे कई बार बच्चे भटक जाते हैं, वो समझ नहीं पाते कि
क्या करें और क्या न करें, सबसे ज्यादा तकलीफ़ किशोरावस्था में होती हैं। ऐसे में
रत्ना ने हमें अलग-अलग परवरिश के तरीकों के बारे में बताया और इस बात की जानकारी
भी दी कि इन मुद्दों पर हम माता-पिता से कैसे बात करें?
तीसरे भाग में झिलमिल ने अपने निजी जीवन से
जुड़े अनुभव, यौनिक हिंसा, संघर्ष, ट्रामा, मानसिक बीमारी और उससे निकले की कहानी
हम सबके साथ बांटी। इसके बाद उन्होंने सवाल पूछे कि क्या 20 साल को बचाया जा सकता
था, कि क्या कोई और तरीका था इस समस्या से जूझने का? मैं बिलकुल स्तब्ध थी, मुझे
सवाल ही नहीं समझ में आया क्योंकि मुझे लगता है जो संघर्ष उन्होंने किया है उसे
जीना बहुत मुश्किल है और समझना नामुमकिन ऐसे में उन्होंने कोई सलाह देना मेरे
मुताबिक एकदम व्यर्थ हैं। हर दिन की तरह ये दिन बहुत अहम रहा मेरे लिए, क्योंकि
कहीं न कहीं मानसिक समस्याओं पर बातचीत नहीं कर पाना, उन्हें धब्बा समझना, परिवार
का सहयोग न होना इंसान को बहुत तोड़ देता है, मेरे निजी जीवन के अनुभव से जोड़कर
देखूं तो इससे जूझना बहुत मुश्किल होता है।
तीसरे दिन का आखिरी सत्र “जाति और यौनिकता” को लेकर रहा, जहां ध्रूबो
ज्योति ने अपने निजी जीवन के अनुभव सामने रखे और बताया कि कैसे उनकी जाति और
यौनिकता एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, कैसे जीवन के हर स्तर पर उन्हें जाति के ढांचे
से जूझना पड़ता है, और क्यों ये जरुरी है कि वो अपनी जाति के बारे में चर्चा करें।
मेरे लिए ये सत्र ऐसा था जैसे कोई मेरी कहानी बयां कर रहा हो, जिंदगी की ऐसी कई
बातें हैं जो याद आ गई, मुझे लगता था कि इन बातों के कोई मायने नहीं है लेकिन समझ
में आया कि कैसे छोटी छोटी बातें जाति, जेंडर और यौनिकता के ढांचे को कस कर पकड़े
हुए हैं, मेरे लिए तीसरा दिन और गंभीर हो गया।
इस गंभीर माहौल में शाम को एक पार्टी का आयोजन
किया गया, गौर करने वाली बात ये है कि मुझे संगीत और डांस बेहद पसंद हैं, लेकिन
सबके सामने डांस करना बहुत मुश्किल रहता है। जहां तक मुझे याद है मैंने पिछले बार क्रिया
के एसजीआरआई इंस्टिट्यूट में ही खुलकर डांस किया था, क्योंकि मुझे लगता है कि यहां
मेरे बारे में कोई धारणा नहीं बनाए गया, मेरे शरीर को लेकर कोई कॉमेंट नहीं करेगा,
मुझे देखकर कोई हंसेगा नहीं और हां मैं यहां सुरक्षित हूं। इसलिए मेरे अंदर का
सुपरडांसर बाहर आ गया और संगीत के बजने से लेकर उसके बंद होने तक मैंने जमकर डांस
किया। रात काफी मज़ेदार रही, फोटो खींचे गए, बाते हुई। रात के करीब डेढ़ बजे तक
मैं और शिवानी एक दूसरे से काम की बाते कर रहे थे। मैं अपने उपर हैरान थी, कि कहां
से मेरे अंदर इतनी शक्ति आ गई।
मज़ेदार बात ये है कि सब लोग कहते रहे कि मेरी
रुममेट ज्यादा बात नहीं करती, वो अक्सर नौ बजे सो जाती है, लेकिन जब मैं कमरे में
आई तो वो जगी हुई थी और हमने ढेरो बातें की जैसे हम दोनों एक दूसरे को न जाने कब
से जानते हैं, मैंने अपनी एक किताब भी उसे दी क्योंकि मुझे पता चला कि उसे पढ़ने
का बहुत शौक है। इतनी कम उम्र पर इतनी सहजता और समझदारी काबिले तारीफ है।
खैर सुबह उठना किसी हैंग-ओवर से कम नहीं था,
सुबह उठकर भी हमने काफी बातें की- उसने अपने काम, अपने शौक के बारे में बताया। हम
दोनों तकरीबन एक ही मुद्दे पर काम कर रहे हैं लेकिन काम करने का तरीका काफी अलग
है। खैर हम दोनों झटपट तैयार होकर वर्कशॉप के लिए पहुंचे। ऐसा लग ही नहीं रहा था
कि आज आखिरी दिन है, ऐसा महसूस हो रहा था कि हम काफी समय से एक साथ ही रह रहे हो।
चौथे दिन का पहला सत्र ‘इंटरनेट और यौनिकता’ पर आधारित रहा- इस सत्र
में कई एक्टिविटी कराई गई जो अपने आप में बाकि सत्रों से काफी अलग था, पहले हमने
इंटरनेट के फायदे और चुनौतियों के बारे में चर्चा की, उसके बाद इंटरनेट को नारीवादी
कैसे बनाया जाए पर हुई एक कॉन्फ्रेंस के बिंदूओं पर ग्रुप में चर्चा की और आखिर
में अपने अलग-अलग अकाउंट्स को कैसे सुरक्षित बनाया जाए पर एक एक्टिविटी के द्वारा
समझ बनाई। इसमें कोई दो राये नहीं है कि आज के जीवन में इंटरनेट की पकड़ ऐसी है
जैसे जल में मछली, किसी भी उम्र का इंसान हो उसके लिए इंटरनेट का इस्तेमाल लाज़मी
हो गया। खुद के बारे में बात करुं तो डिजिटल माध्यम के जरिए ही मैं अपना काम समाज
के अलग-अलग तबकों तक पहुंचा पा रही हूं। इसके साथ ही इंटरनेट के साथ आ रही
चुनौतियों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता ऐसे में इसे नारीवादी फ्रेंडली बनाना और
जरुरी हो गया है क्योंकि कट्टरपंथी इसी इंटरनेट का इस्तेमाल करते हुए अपना एजेंडा
फलीभूत कर रहे हैं।
इस पूरी एलुमनाई मीट में प्रतिभागियों ने अपने
अनुभव, एसजीआरआई से जुड़ाव के बारे में खुलकर चर्चा की, लेकिन ये चर्चा इस
इंस्टिट्यूट के कर्ता-धर्ता यानि फसिलिटेटर या संस्थापकों के अनुभवों के बिना अधूरी
थी। ऐसे में प्रमदा मेनन और शालिनी जी ने अपने खट्टे-मिट्टे, चुनौती भरे और
एसजीआऱआई से जुड़ाव के बारे में खुलकर अपनी दिल की बातें रखी। मेरे लिए ये
इंस्टिट्यूट दूसरे घर की तरह है, मैं यहां सीखने के लिए आई थी वो बात जरुरी है
लेकिन उससे भी जरुरी ये बात है कि मैंने यहां अपने आप से रुबरु हुई, अपने आप को
समझ, अपने जीवन में जेंडर, यौनिकता, धर्म, जाति के ढांचों को देखा और समझ बनाई,
इसलिए शायद दूसरा घर पहले घर से ज्यादा दिल के करीब लगता है।
“भला हुआ मेरी गगरी फूटी,
मैं पनिया भरने से छूटी,
मेरे सिर से टली बला।”
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