काफी दौड़-भाग और पूछताछ के बाद आखिरकार मैं गांधी समृति दर्शन समिति
पहुंच ही गई। दिल्ली की भागती-दौड़ती शोर-शराबे वाली दुनिया के एकदम बीचो-बीच इतनी
शांत जगह भी है, इसका इलम भी मुझे नहीं था। कई सवालों के साथ मैंने हॉल के अंदर
एंट्री ली। इस तीन दिन की वर्कशॉप में क्या होने वाला है, कैसे होने वाला है इसके
बारे में मुझे ज्यादा पता नहीं था।
हॉल काफी खचाखच भरा हुआ था, स्टेज पर काफी उम्र-दराज लोग बैठे हुए थे, देखकर ही लग रहा था कि बहुत लेक्चर सुनना पड़ेगा और हां उम्र-दराज लोग भी है तो जरुर वो युवाओं की कमियों पर रोशनी डालेंगे! इसी कश्मकश के बीच पोपटराव पवार का परिचय दिया गया। पोपटराव पवार पिछले 27 साल से महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव हिवरेबाज़ार के विकास के लिए काम कर रहे हैं, इसी साल प्रधानमंत्री ने उनके गांव और उनके काम की प्रंशसा मन की बात में की थी। हिवरेबाज़ार सूखा ग्रस्त इलाका है बावजूद इसके यहां पानी की कोई कमी नहीं है। ये स्थिति एक दिन, एक महीने या एक साल की मेहनत का परिणाम नहीं है बल्कि 27 साल की तपस्या का फल है। हिवरेबाज़ार में वॉटरशेड प्रोग्राम सरकार की स्कीम, गांववालों के श्रमदान, एनजीओ तीनों के सहयोग से शुरु किया गया और उसका नतीजा आज सबके सामने हैं। एक अलग ही उमंग थी उनकी बातों में, उनके हाजिरजवाब अंदाज ने मुझे चौका दिया, उम्मीद नहीं थी कि एक उम्र-दराज इंसान इतनी खुली सोच रखता है।
हॉल काफी खचाखच भरा हुआ था, स्टेज पर काफी उम्र-दराज लोग बैठे हुए थे, देखकर ही लग रहा था कि बहुत लेक्चर सुनना पड़ेगा और हां उम्र-दराज लोग भी है तो जरुर वो युवाओं की कमियों पर रोशनी डालेंगे! इसी कश्मकश के बीच पोपटराव पवार का परिचय दिया गया। पोपटराव पवार पिछले 27 साल से महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव हिवरेबाज़ार के विकास के लिए काम कर रहे हैं, इसी साल प्रधानमंत्री ने उनके गांव और उनके काम की प्रंशसा मन की बात में की थी। हिवरेबाज़ार सूखा ग्रस्त इलाका है बावजूद इसके यहां पानी की कोई कमी नहीं है। ये स्थिति एक दिन, एक महीने या एक साल की मेहनत का परिणाम नहीं है बल्कि 27 साल की तपस्या का फल है। हिवरेबाज़ार में वॉटरशेड प्रोग्राम सरकार की स्कीम, गांववालों के श्रमदान, एनजीओ तीनों के सहयोग से शुरु किया गया और उसका नतीजा आज सबके सामने हैं। एक अलग ही उमंग थी उनकी बातों में, उनके हाजिरजवाब अंदाज ने मुझे चौका दिया, उम्मीद नहीं थी कि एक उम्र-दराज इंसान इतनी खुली सोच रखता है।
भारत विकास संगम द्वारा आयोजित युवा संस्कार शिविर में मुझे शामिल
होने का मौका मिला- इस शिविर का उद्देश्य युवाओं को समाज सेवा और राष्ट्र सेवा से
जोड़ने और उन्हें जबावदेह बनाने के लिए प्रेरित करना है। “देश का दिल गांव में बसता है, लेकिन आज भारत और
इंडिया में एक रेखा खिंच गई- कुछ इस पार है तो कुछ उस पार और ऐसे लोग भी हैं जो न
इस पार है और न उस पार। इसलिए जरुरत है कि गांव की समस्या को गांव में सुलझाया
जाए, जिले के काम को जिले में निपटाया जाए, राज्य का काम वहीं पूरा हो और देश का
देश के अंदर- तभी तो मेरा गांव मेरा देश, मेरा जिला, मेरी दुनिया का उद्देश्य पूरा
हो पाएगा” पोपटराव जी ने कहा।
इसके बाद विभिन्न प्रदेशों से आए हुए युवाओं को अलग-अलग ग्रुप में
बांटा गया- और उनसे अपने गांव की समस्याएं लिखने और वो कैसे इसे सुलझा सकते हैं पर
विचार करने को कहा गया। हैरानी की बात ये थी कि 12 में से 10 ग्रुप का नाम किसी न
किसी महापुरुष के नाम पर आधारित था, बाकी 2 के नाम महिला के थे लेकिन दोनों में भी
ग्रुप लीडर केवल पुरुष ही थे। मुझे ये बात काफी खटकी, मैं रानी लक्ष्मी बाई ग्रुप
का हिस्सा थी जिसमें 10 लड़के थे जिन्हें केवल तेलगु आती थी और मुझे केवल हिंदी और
अंग्रेजी, ऐसे में विचार विमर्श तो दूर एक दूसरे की बात समझना तक मुश्किल हो गया।
मुझे पहली बार भाषा के अज्ञान का परिणाम भुगतना पड़ा, लेकिन एक सज्जन जो दिल्ली
में ही रहते हैं पर मूलत:
हैदराबाद के है, उन्होंने हमारे ग्रुप में
अनुवादक की भूमिका निभाई। मैंने देखा कि कितनी विषम परिस्थितियों में अपनी पढ़ाई
पूरी करने वाले ये युवा कितनी शिद्दत से अपने गांव की समस्या सुलझाना चाहते हैं। मेरी
कई धारणाएं और भावनाएं बदल रही थी, मैं कार्यक्रम की संजीदगी का भांप रही थी।
दूसरे दिन की शुरुआत शिक्षाशास्त्री श्रीपथ रेड्डी के सेशन से हुई-
उन्होंने भारत की शिक्षा प्रणाली और उससे संबंधित अपेक्षाओं पर रोशनी डाली। मसलन
एक शिक्षक से उम्मीद करना कि वो 40 मिनट में 40 बच्चों तक किसी विषय विशेष का
ज्ञान पहुंचाएगा- ये महज बेवकूफी भरा अंदाजा है क्योंकि उन 40 बच्चों की सीखने का
कौशल, पढ़ने का तरीका, वो कौन से जगह से आते हैं सब अलग होता है। उनके मुताबिक 85
प्रतिशत बच्चे अपना 85 प्रतिशत समय क्लासरुम में बर्बाद कर रहे हैं। ये कथन भी सही
नहीं है कि शिक्षकों को सुधारने से शिक्षा व्यवस्था एकदम दुरुस्त हो जाएगी क्योंकि
अच्छे से अच्छा टीचर भी सभी बच्चों को एक चीज 40 मिनट में नहीं समझा सकता। उनका
मानना है कि शिक्षा पद्धति 10 साल तक बच्चों को चुप रहना सीखाती है फिर एकदम से
उम्मीद करती है कि उनका संवाद अच्छा हो वो खुले दिल से अपनी बात रख सके, ये बहुत
बड़ी भूल है।
ऐसे ही कई मुद्दों पर पर रिसर्च करते हुए उन्होंने वंदेमातरम
फाउंडेशन की शुरुआत की, जो गुरु शिषय परंपरा पर आधारित है, इसमें बच्चों को समूहों
में बांटा जाता है और हर समूह के साथ एक टीचर यानि फेसिलिटेटर होता है। क्योंकि
बच्चों को गणित सबसे कठिन लगता है इसलिए उन्होंने काफी रिसर्च के बाद एक पाठ्यक्रम
बनाया है जिसे बच्चों को सीखाया जाता है, इस तकनीक से बच्चों के समझने और जानने
में कई गुना सुधार आता है। इस पाठ्यक्रम को और समझने के लिए भारत सरकार के साथ साथ
देश-विदेश के लोग भी अनुसंधान करने के लिए वंदेमातरम फाउंडेशन आते हैं। सच में
पढ़ाने की ये तकनीक काफी दिलचस्प है, सोचिए मैथ्स के सवाल सोल्व करने के लिए केवल
रिक्त स्थान भरने हो?
इसके बाद महेश शर्मा जी जो आरएसएस कार्यकर्ता, शिवगंगा आश्रम के
फाउंडर है उन्होंने अपने काम के बारे में बताया जिसे सुनकर मेरी कई धारणाएं हमेशा
के लिए खत्म हो गई। महेश शर्मा झाबुआ में रहने वाली भील जनजाति के लिए सालों से
काम कर रहे हैं। इस जनजाति के बारे में कई धारणाएं जैसे ये असभ्य होते हैं,
आपराधिक मानसिकता के होते हैं, ये सीखना नहीं चाहते आदि। इनके पास एक मात्र जंगल
थे जिसे औद्योगीकरण ने नष्ट कर दिया। जंगल की कीमती सागौन की लकड़ियों को चुराने
का आरोप भी लगा। महेश शर्मा इन लोगों के बीच गए और इन्हीं की परंपरा हलमा का उपयोग
करके इन्हें एकजुट किया और उनके विकास और उथान में मदद की। खेती के प्रति लोगों का
रुझान और सम्मान बढ़ाने के लिए गेंती यात्रा का आय़ोजन किया जिसमें महिलाओं, युवाओं
और बच्चों ने भी बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। पहले साल में 300 लोगों से बढ़कर पिछले
साल करीब 8000-10,000 वालिंटियर इकट्ठा हुए- पथरीली पहाड़ों पर खेती लायक जमीन
बनाई, कई जगह तलाब और सरोवर खुदवाए ताकि सूखे से निपटा जा सके।
महेश जी की बातें बहुत प्रभावशाली रही क्योंकि उन्होंने एक समुदाय की
रचना, वालिंटियर और अपनी किस्मत खुद लिखने पर जोर दिया। उन्होंने ये भी कहा, “भारत की संस्कृति संवधर्न पर आधारित है, संवर्धन
से ही समृद्धि मिलती है
(inclusive and sustainable development)”
महेश शर्मा के सत्र के बाद आरटीआई एक्टिविस्ट श्रीनिवास राव का सत्र
था। एक 10वीं पास व्यपारी से एक्टिविस्ट बनने के पीछे की कहानी को प्रतिभागियों के
साथ बांटा। अपने परिवार और खुद पर हुए पुलिस के अत्याचारों से तंग आकर उन्होंने ये
रास्ता अपनाया। उनका मानना है कि RTI एक भ्रष्ट्राचार को
हटाने नहीं अपितु सिस्टम को जबावदेही बनाने के लिए काम आता है। हर एक सवाल एक नई
क्रांति को जन्म देता है, आप खुद की और लोगों की मदद बिना किसी संस्था या फिर किसी
सिस्टम का हिस्सा बनकर कर सकते हैं केवल आपको RTI की जानकारी होनी
चाहिए। काफी रोचक तरीके से उन्होंने कई किस्से बताए जहां उन्होंने इसी जानकारी का
उपयोग करके क्रांतिकारी बदलाव लाए।
काला धन क्या होता है? ये कैसे बनता है और
भारतीय अर्थशास्त्र के लिए ये कितना नुकसानदेयक है इसकी जानकारी रिटायर्ड IRS अधिकारी वीवी राव ने प्रतिभागियों के साथ बांटी।
उन्होंने हाल ही में काले धन पर लिए केंद्र सरकार के फैसले के बारे में भी बात की।
लंच के दौरान मुझे के एन गोविंदाचार्य से बातचीत करने का मौका मिला,
वो आरएसएस प्रचारक है, बीजेपी का भी हिस्सा रह चुके हैं इसके अलावा समाज कार्य में
उनका बड़ा योगदान रहा है। “गोंविंदाचार्य जी, आप समाज के विकास में महिलाओं
की भागदारी को किस नजरिए से देखते हैं? यहां पर तो महिला प्रतिभागी
काफी कम रही, और स्पीकर्स में तो एक महिला भी नहीं थी”
“तुमने एकदम सही जगह
निशाना किया है, ये ही एक स्थान है जहां हम पिछड़ रहे हैं, महिलाओं के नेतृत्व की
कमी खलती है मुझे, जल्द ही इसपर फैसला करुंगा। फिलहाल तीन अहम मुद्दें हैं
लड़कियों की शिक्षा, करियर और शादी की आज़ादी। इसके बाद महिलाओं के खिलाफ़ होने
वाली हिंसा। इन सबके बीच एक आदार है जो मुझे महिलाओं के प्रति नहीं दिखता, पुरुष
कुछ भी करें उसे कोई रोकटोक नहीं होती पर वहीं काम करने वाली महिलाओं को आदर से
नहीं देखा जाता। बहुत जागरुकता लाने की जरुरत है” गोविंदाचार्य
ने कहा।
इसके बाद मैंने साहस के काम के बारे में उनसे बातचीत की, मेरे विचारों
को वो खुलेपन से सुन और समझ रहे थे। हां मैं बहुत हैरान और असमंजस में थी। इस
कार्यशाला ने मुझे बहुत कुछ सीखाया- एक तुलानात्मक सीख मिली कि दिल्ली में और देश
के गांवों में होने वाले सामाजिक कार्य में फर्क क्या है, कैसे आजादी के 70 साल
बाद भी हम बुनियादी चीजों के लिए संघर्ष कर रहे हैं? प्रिविलेज
के सही मायने क्या है? हां कई मायनों में दिल्ली में हो रहा काम मुझे एक
तरह की प्रिविलेज ही लगा। साथ ही एक सोच पर भी प्रहार था कि केवल युवा ही खुली सोच
के होते हैं वो विकास का वर्तमान और भविष्य है लेकिन यहां मैं एकदम अलग सच्चाई से
रुबरु हुई जहां उम्र-दराज लोग विकास की नींव पहले ही मजबूत कर चुके है, हमें अलग
से नींव तैयार करने की जरुरत ही नहीं है, जरुरत है तो एकसाथ मिलकर कदम से कदम
मिलाकर चलने की है।
सबसे अहम बात भारत का दिल सच में गांव में ही बसता है, और ये भागती
दौड़ती जिंदगी तो महज छलावा है- एक ऐसी दौड़ जिसका न कोई अंत है और न कोई छोर!
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