मन में सवालों का समुंदर और सिर में हलके दर्द के साथ पत्रकार अपने घर
में घुसा। रात के करीब 1 बजे थे, पेट में चूहों की फौज धमाचौकड़ी मचा रही थी,
फ्रीज़ का गेट खोला तो हर रोज़ की तरह निराशा ही हाथ लगी, क्योंकि फ्रीज़ में खाने
के लिए कुछ नहीं था बस पतीला भरा हुआ दूध और ब्रेड रखा था। रात के अंधेरे में किचन
में और खोज की तो एक परांठा मिला। पत्रकार खुश हो गया मानो उसे जन्नत मिल गई हो
लेकिन फिर दिमाग और दिल लड़ने लगे, दिल कहता “ खा ले यार! इतना कामकाज करने के
बाद एक परांठे की तो औकाद है ही। आज छूट गया क्या पता कल इतने अच्छे नसीब हो ही
नहीं” हाथ परांठे की तरफ जाते इससे पहले दिमाग चीखा, “पागल हो गया है सिर्फ एक परांठा
रखा है, अगर इसे खा लिया तो मम्मी को पता चल जाएगा कि रात में हमने इसे खा लिया है
फिर इतने ताने मारेंगी कि गोली खाने लायक भी नहीं रहोगे। खैर वो ये सब हमारी भलाई
के लिए ही कहती हैं”
दिल को गुस्सा आया और बोला “इतने दिनों बाद मम्मी ने छोड़ा है, हमारे लिए ही रखा
होगा, खाने के मामले में भी दिमाग की सुनोगे। हद है! फिर
मेरी ज़रुरत ही क्या है, रखो इस दिमाग को अपने पास। भूख के मारे जान निकली जा रही
है और महाशय को दुनियादारी की पड़ी है। मानो मानो इस दिमाग की ही मानो...आज परांठा
गया है कल हसीना भी जाएगी। वहां भी बोलेगा- हमारी भलाई इसी में है कि बस घर से
नौकरी पर जाओ और नौकरी से घर वापस आओ। प्यार करने की क्या जरुरत है?” दिमाग भन्नाते हुए बोला “ हे भगवान, तुम कहां की बातें
कहां ले जाते हो? तुम पागल हो! हर चीज
के फैसले चुटकियों में नहीं लिए जाते। खाना और लड़कियों में क्या तालमेल? मैंने कहा न कि जल्दी पानी पिओ, किचन से भागो और जाकर सो जाओ, कल ऑफिस भी
जाना है। समझे कि नहीं। लोजिकल पत्रकार ने हमेशा कि तरह अपने दिमाग की बात सुनी और
सोने चला गया लेकिन उसका मन अभी भी किचन में रखे परांठे के पास ही था।
नींद ही वो समय था जब शायद मैं वो होता था जो मैं हूं- जहां न परिवार
की बंदिशें थी, न वो कर्कश आवाज़, न दोस्त, न ऑफिस के जबरदस्ती के दोस्त, न कोई
एक्सपेक्टेसन, न कोई काम करने की हड़बड़ी, न दिल और दिमाग की जंग। हां वो जगह होती
है जहां आप वो हो सकते हैं जैसे आप हैं, आपके बारे में कोई राय नहीं बनाई जाती,
नाही आपको किसी के अनुरूप ढलने की जरुरत होती है...इसी नींद में सपनों के
इंद्रधनुष के बीचों बीच मुझे वो नज़र आई। हां वही जिसे देखकर मेरा दिल जोरों से
धड़कने लगता है, जब दिल और दिमाग एक ही पटरी पर एक साथ दौड़ते हैं, वो जो मुझे
अपनी पत्रकारिता से ज्यादा आकर्षित करती है।
क्या ऐसा संभव भी होता है, क्या कुछ
पलों की मुलाक़ात, नज़रों के टकराने से प्यार हो जाता है...वो प्यार जो मैंने
फिल्मों में देखा है? या जैसा रोमयो ने जुलियट के साथ, शिरी ने फरहाद के साथ, हीर ने रांझा के
साथ, शाहजहां ने मुमताज़ के साथ या फिर मेरी बेस्ट फ्रेंड ने अपनी पत्नी के साथ
किया? होता क्या है प्यार... शायद मैं जल्दबाज़ी कर रहा हूं,
मेरा मन एक खूबसूरत लड़की को देखकर फिसल गया है- मेरी उम्र में शायद ऐसा ही होता
है, या फिर मुझे किसी दोस्त की जरुरत है। ये सब प्यार व्यार दिमाग का फीतूर है!
खैर होगा ये फितूर पर उसे देखकर मन प्रफुल्लित था, अजीब सी खुशी थी,
ऐसी खुशी जैसे मानो दूर दूर फैले रेगिस्तान में पानी का झरना नज़र आ गया हो। रेशमी
बाल, होठों पर गजब सी मुस्कुराहट, आंखों में मेरा तसव्वुर लिए वो मेरी तरफ बढ़ रही
थी। अनसुलझे सवालों की तरह मैं उसके तरफ बढ़ रहा था, वो चंद कदम इतने भारी थे कि
मानो सदियों का सफर कर रहा हूं। मैं और वो एक दूसरे की तरफ बढ़ रहे थे, हर कदम
हमें एक दूसरे के करीब ला रहा था, इतने करीब की सांसों के लिए भी जगह न रहें।
“क्यों आज उठना नहीं है, भई आज आपका संडे नहीं है। ओह
मैं तो भूल ही गई पत्रकार महाशय का तो संडे भी संडे को नहीं आता। मैं तो कभी भी इस
नौकरी के लिए राज़ी नहीं थी। पता नहीं ये कौन ही नौकरी है जहां रात को 1 बजे आया
जाता है, सुबह 10 बजे जाना होता है, खाने पीने का कुछ पता नहीं, सैलरी के नाम पर
अठनी चवन्नी! मै कह रही हूं कुछ तो गड़बड़ है, नालायक तो ये
पहले से ही था अभी भी कुछ खुराफत कर रहा है, नहीं तो बताओ इतने बड़े चैनल में किसे
इतनी कम सैलरी मिलती है। कोई शादी के लड़की भी नहीं मिल रही। मैं तो परेशान हो गई
हूं। और इन महाशय को देखो घोड़े बेचकर सो रहे हैं। उठ जा लेट हो जाएगा, इतनी उम्र
में भी मां को उठाना पड़ता है”
आधी अधूरी नींद, भारी सिर, अधूरे सपने और मां के तानों के साथ एक और
नए दिन की शुरुआत कुछ ऐसे हुई
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