Monday, 16 December 2024

हकीकत है, वो स्याह रात की कहानी

कहानियों में था सुना,

किस्सा काली भयावक रात का

गड़गड़ाते बादल, सुनसान रास्ता, दरिंदगी राक्षस की

लेकिन ये रात तो आम रात सी थी

न सुनसान न अकेली

दिल्ली जो सोती नहीं,

मूंद ली उसने भी अपनी आंख

क्या पहना था उसने?

थी किसके साथ वो?

इतनी रात को क्यों घूमती अकेले?

कितनी बातें कितने सवाल

हैवानों से मांगी होती माफी, बनाया होता भाई

कहता झूठा सन्यासी।

क्यों कभी सवाल नहीं उठा राक्षस पर

बीत गए 12 साल,

पर क्या आया अन्याय की गुफा में सवेरा ?

घर, दफ्तर, सड़क, बस

गांव, शहर

बच्ची, किशोरी, महिला या बुजुर्ग

शिक्षित, अशिक्षित

हर रोज हर घंटे

बनती दरिंदगी का शिकार

अब भी कहते हो बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ

लानत हैं तुम्हारे दुस्साह पर

हर उस इंसान पर

हर उस व्यवस्था पर

उन सिस्टम पर

जो बने मूकदर्शक अन्याय के

उन सभी पर

जो दुहाई देते बदलते समाज की

लड़कियों तो लड़कों से आगे हैं

नेता भी महिला, पुलिस भी महिला

हवाई जहाज चलाती महिला

अंतरिक्ष में परचम लहराती महिला

लेकिन अनदेखा करते स्कूल जाती सहमी छात्रा को

दफ्तर से देर शाम लौटती महिला को

कार्यस्थल पर कम बोली युवती को

ट्रेन में कभी अकेले तो कभी परिवार के साथ

सफर करती लड़की को

सिस्टम में खोट निकालने वाले

न्याय व्यवस्था पर ठिकरा फोड़ने वाले

खुद के गिरेबान में झांको जरा

कब कब तुमने मूंदी आंखे

कब कब अनसुनी की उस चीख और चुप्पी को

खुद कितने बार उड़ाया माखौल

खुद कितने बार बोली अन्याय की जुंबा

हकीकत है वो स्याह रात की कहानी

उठो, जागो, खोलो आंखे

जब तक नहीं बढ़ेगे सभी के हाथ

जेंडर आधारित हिंसा के खिलाफ़

नहीं खत्म होगी ये अंधेरी रात, भयावक रात।