Saturday 12 January 2019

जेंडर पर समझ बनाते नागेपुर गांव के सामाजिक कार्यकर्ता


जब हम छोटे थे, तो गांव में फिल्म देखने की व्यवस्था नहीं होती थी जैसे सिनेमा हॉल या टीवी। उस समय वीसीआर होता था, तो लड़के तो बड़े मज़े से खुलेआम चले जाते थे पर लड़कियों के जाने पर पाबंदी होती थी। मुझे बड़ा शौक है फिल्म देखने का, तो गुपचुप हम भी फिल्म देखने चले जाते थे, पर पकड़े जाने पर हमारी बहुत पिटाई होती थी। अगर मैं लड़का होती तो फिल्म के नाम पर मेरी पिटाई कभी नहीं होती और न मुझे किसी से अनुमति लेनी पड़ती।

पिछले 3 साल से साहस लगातार किशोर-किशोरियों, युवाओं, महिलाओं और अध्यापकों के साथ जेंडर, यौनिकता और प्रजनन स्वास्थ्य पर समझ बनाने और जेंडर आधारित हिंसा को जड़ से हटाने के लिए काम कर रहा है। जेंडर आधारित असमानता समाज के हर पहलू में दिखाई देती है, ऐसे में अलग-अलग मुद्दों पर काम करने वाले समाजसेवी भी इस मानसिकता से परे नहीं है। इसके साथ ही भारत के शहरों में तो समाज सेवी संस्थाएं काफी बढ़चढ़ कर काम करने में जुटी हुई हैं, लेकिन देश की 70 प्रतिशत आबादी गांव में रहती है, वहां ये संस्थाएं जाने से कतराती है। इन्हीं बातों को समझते हुए साहस ने वाराणसी के गांवों में महावारी के मुद्दे पर काम कर रही मुहिम के साथ कोलेबोरेट कर जेंडर ग्राम कार्यक्रम की संरचना की। इस कार्यक्रम का मकसद वाराणसी के गांवों को जेंडर संवेदनशील और समावेशी बनाना तय किया गया । जेंडर ग्राम के प्राथमिक चरण में गांवों में महिलाओं, युवाओं और किशोर-किशोरियों के साथ काम करने वाले समाजसेवियों के साथ जेंडर, यौनिकता और सरोकार दो दिवसीय वर्कशॉप का आयोजन किया। 



अक्सर हम जब भी किसी वर्कशॉप, बैठक या फिर किसी कार्यक्रम में बतौर प्रतिभागी जाते हैं, तो दिमाग में तरह तरह के सवाल उठते हैं, कई बातें चलती है मसलन यहां क्या होने वाला है? कितनी देर तक कार्यक्रम चलेगा? अगर बोरियत होने लगी तो? घर में इतना सारा काम है, यहां आने से पहले की बातें और आने वाले समय में हमें क्या-क्या करना होगा की खिचड़ी पक रही होती है जिसकी वजह से हम वर्तमान में चल रही बातों पर गौर नहीं कर पाते। प्रतिभागियों के दिल और दिमाग को कार्यशाला में लाने और मन को एकाग्र करने के मकसद से वर्कशॉप की शुरुआत ध्यान लगाने के साथ हुई। जिसके बाद प्रतिभागियों को आमंत्रित किया गया कि वो अपना नाम और वर्कशॉप में किस उद्देश्य से आए पर रोशनी डाले ताकि आने वाले दो दिनों में ग्रुप की उम्मीदों और कार्यशाला के फ्लो में तालमेल बनाया जा सके। 


जेंडर, जेंडर आधारित हिंसा और यौनिकता जितने सामाजिक मुद्दे हैं उतना ही निजी भी, इस कार्यशाला के जरिए प्रतिभागी अपने निजी जीवन में शुरु होकर बाहरी समाज में किसी तरह जेंडर अपने आप को प्रदर्शित करता है पर समझ बनाएंगे – ऐसे में प्रतिभागी बिना झिझक के, बिना इस डर के कि कोई उनकी बातों को सुनकर उनके बारे में धारणा बनाएं और वो खुल कर बात कर पाएं इसलिए कुछ नियमों पर सहमति बनाई गई। 


पहले सत्र की शुरुआत उंगली डांस के साथ की गई, जहां प्रतिभागियों ने खुलकर भाग लिया। एक प्रतिभागी ने उंगली डांस को अपने हिसाब से बदलकर बिलकुल नए अंदाज में प्रस्तुत भी किया। इसके बाद चिट एक्टिविटी के जरिए प्रतिभागियों ने समझा कि कैसे हमारे महिला या पुरुष होने की वजह से कार्यों, भावनाओं और क्षमताओं का बंटवारा किया गया है। कौन ये काम ज्यादातर करते हैं और कौन ये काम कर सकता/सकती है पर चर्चा करते हुए प्रतिभागियों ने आपसी सहमति के साथ तय किया कि – पुरुष के पास दाढ़ी-मूंछ होती है वहीं महिलाएं बच्चे को जन्म देती है, उन्हें महावारी होती है और स्तन पान भी वही करा सकती है- यही महिला और पुरुष में बुनियादी फर्क है।


सत्र की अगली एक्टिविटी में प्रतिभागियों को ग्रुप में बांटा गया और उन्हें लड़का या लड़की होने की वजह से उन्हें मिले तीन संदेशों पर चर्चा करने के लिए आमंत्रित किया गया। ये चर्चा बेहद रोचक रही जहां कई ग्रामीण परिपेक्ष्य की कई अहम बातें सामने निकलकर आई-

लड़कियों को खाना बनाना चाहिए।
लड़कियों के बाहर घूमने पर पाबंदी, अगर बाहर जा रही हो तो पर्दे में जाओ, किसी कीमत पर आंचल नीचे नहीं होना चाहिए।
ससुराल में हर वक्त घूंघट में रहना
अगर लड़की हो तो तुम्हारे साथ छेड़खानी होगी ही, कितने बार हमारी संगी साथी गांव में आने जाने के दौरान लड़के लोग खींच लेते हैं, बदतमीज़ी करते हैं


लड़की हो तो सूट सलावर या फ्रॉक पहनो
अगर स्कूल दूर है, तो मां पिता पढ़ाई छुड़ा देते हैं।
खाने पीने पर भी रोक-टोक, जैसे दूध, मलाई और घी तो सिर्फ लड़के ही खाएंगे।
अगर लड़का रो दे, तो उसका बुरी तरह मज़ाक उड़ाया जाता है, क्रीम-पाउडर लगा ले तो उसे औरत कहकर ताना मारा जाता है, लड़कियों से बातचीत पर भी रोक-टोक रहती है
लड़कियों के संजने- संवरने पर पाबंदी है, ताने मारे जाते हैं


लड़की होने की वजह से बचपन से ही साइकिल चलाने के लिए मना कर दिया, लड़कों से बात नहीं करना है, गर्ल्स कॉलेज में पढ़ाया गया, घर का काम करने पर जोर दिया जाता है
बहू-बेटियों को धीमे बोलने को कहा जाता है, ऊंची आवाज़ में बात करना गलत माना जाता है
मोबाइल पर बात करने पर रोक-टोक। थोड़ी देर भी बात कर ली, तो उसपर तरह तरह की बातें और सवाल उठाए जाते हैं- किस से बात कर रही थी, क्या बात कर रही थी, इतनी देर तक क्यों बात कर रही थी, किस तरह की बातचीत हो रही थी, क्या संबंध है आदि

घर से बाहर जाने पर सवाल किए जाते हैं, हमेशा अनुमति लेकर बाहर जाना पड़ता है, दोपहर बाद जल्दी घर लौटने को कहा जाता है, ज्यादा टीवी देखने के लिए मनाही है क्योंकि लड़कियां बिगड़ जाती है, जोर –जोर से हंसने पर मनाही- बोलते हैं कि क्या बेशर्म हो, लड़कों की तरह हो-हो करके क्यों हंसती हो
मैं क्रिकेटर बनना चाहती थी, मुझे खेलना बहुत पंसद है पर मना कर दिया और कहा कि ये लड़कों का खेल है इसे लड़कियां नहीं खेल सकती
लड़कों से बात करने और दोस्ती पर पाबंदी, और अगर गलती से लड़का आपके साथ बैठ गया तो आपके चरित्र पर सवाल उठा दिए जाते हैं


एक ग्रुप ने पूरी एक्टिविटी को अलग मोड़ दे दिया, उन्होंने तीन संदेश लिखने के बजाये अपने अनुभवों को क्रेंदित करते हुए लिखा कि अगर मैं लड़का होती तो – 

मैं अपने मनपंसद कपड़े पहनती। क्योंकि घर के बाहर जब मैं कहीं और जाती हूं तो सूट सलवार पहन लेती हूं, कई बार जींस भी पहना है पर घर से ये कपड़े पहनकर नहीं निकल सकती। इसलिए अगर मैं लड़का होती तो कहीं भी अपने हिसाब के कपड़े पहन पाती

अगर मैं पुरुष होती तो मैं बच्चा पैदा नहीं करती – महिला होने की वजह से मुझे बचपन से ही ये बताया गया है कि लड़की पूरी महिला तभी बनती है जब उसकी शादी हो और वो बच्चे को जन्म दे। इसके बाद बच्चे की पूरी परवरिश, देखभाल, पढ़ाई आदि की जिम्मेदारी और चिंता मां पर आ जाती है तो अगर मैं लड़का होती तो मुझसे ऐसी कोई जबरदस्ती की जिम्मेदारी नहीं होती

अगर मैं लड़का होती तो, मैं कहीं भी जाने की, घूमने की और कुछ भी करने की आज़ादी होती। मैं छोटे बाल रखती, ठंडी में बाल धोने में कितनी मुश्किल होती है

मैं लड़की हूं इसलिए रोजगार का साधन भी सिलाई कड़ाई है, अगर लड़का होती तो कहीं दफ्तर में काम करती, शायद अफसर भी बन सकती थी


लड़का होती तो शहर पढ़ने जाती, बाहर देश घूमने का मौका मिल सकता था

ये बातें सुनकर हमेशा दिल कचोटता है कि कैसे एक लड़की होने की वजह से हम आज़ाद देश में रहते हुए भी सामाजिक ढांचों के गुलाम है, कितनी सारे सपने और क्षमताएं होने के बावजूद लाचार है- मानो गुलामी का दूसरा नाम औरत है। इस क्रूर ढांचे को ध्वस्त करने की पहली सीढ़ी है जेंडर की समझ बनाना और इसे अपने जीवन में देख पाना, जब भेदभाव को चिन्हित कर पाएंगे तभी तो चुनौती दे पाएंगे। 

पहले सत्र के आखिरी पड़ाव में कानाफूसी के खेल और कहानी के जरिए हमने जेंडर पर चर्चा की, प्रतिभागियों में समझ बनाई कि आखिर ये ढांचा स्थापित कैसे हुआ, समाज में इसकी जड़े कैसे बनी, हमारे जीवन में जेंडर ने कैसे अपनी पकड़ बनाई और कैसे ये भेदभाव हमारी क्षमताओं को रोककर पूरे समाज की उन्नति में एक बड़ी बाधा के तौर पर खड़ा हुआ है।


आपने बिलकुल सही बात कही है, पुराने समय में तो दोनों आदमी- औरत एक साथ रहते थे। शिकार करते थे, अपना जीवन यापन करते थे। जेंडर की कहानी तो बिलकुल कानाफूसी पर आधारित है- अगर सही संदेश एक कान से दूसरे कान तक पहुंचे तो ये भेदभाव होगा ही नहीं।

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