Friday 21 September 2018

जेंडर आधारित हिंसा पर समझ बनाते और चुनौती देते भावी अध्यापक


घर-परिवार के अहम फैसले पुरुष ही लेते हैं, लड़के के पैदा होने पर मिठाई बांटी जाती है पर लड़की के पैदा होने पर परिवार और रिश्तेदारों में निराशा के बादल छा जाते हैं।


जब देर शाम हो जाती है तब लड़का लड़की को घर छोड़कर आता है या फिर उसे छोड़ना पड़ता है पर मैंने कभी नहीं देखा कि एक लड़की लड़के को घर पर छोड़कर आए, ये बात तो किसी के दिमाग में ही नहीं आती।

पहले सत्र में जेंडर पर समझ बनाने के बाद प्रतिभागियों को 6 अलग-अलग समूहों में बांटा गया जहां उन्हें – घर, मीडिया, धर्म, शिक्षा, दोस्त और सार्वजनिक स्थान पर दिखने वाले जेंडर आधारित फर्क पर चर्चा करने के लिए कहा गया। इस एक्टिविटी जहां जेंडर की समझ की परिक्षा लेती है तो वहीं जेंडर फर्क क्यों है इस पर रोशनी डालने का भी काम करती है। प्रतिभागियों ने बेहद रचनात्मक तरीके से अलग-अलग एंजेसियों में दिखने वाले जेंडर आधारित ढांचों को दर्शाया।



घर-परिवार-

परिवार में लड़कों को अपनी मर्जी के मुताबिक शिक्षा का क्षेत्र चुनने की आज़ादी है वहीं लड़कियों को अपने परिवार और आनेवाले शादीशुदा जीवन को देखते हुए शिक्षा का क्षेत्र चुनना पड़ता है
लड़कों को मनचाहे कपड़े पहनने की आज़ादी होती है, पर लड़कियों के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं होता। वो कुछ भी पहने तो कोई न कोई उन्हें ताने मारता है, बोलते हैं लोग क्या कहेंगे, अपनी मर्यादा में रहो आदि।
लड़कों को घर के काम-काज नहीं करना पड़ते वहीं लड़कियों को बचपन से ही घर परिवार के कामकाज कराया जाता है
लड़कों को बाहर के खेल जैसे खो-खो, क्रिकेट, फुटबॉल वहीं लड़कियों को घर-घर खेलने, लुडो आदि खेलने के लिए कहा जाता है



दोस्त-

लड़कियों को बाहर दोस्तों के साथ घूमने में झिझक होती है, उन्हें लगता है कि कोई देख लेगा तो क्या कहेगा
लड़कियां लड़कों के साथ फ्रेंडशिप या किसी तरह की रिलेशनशीप नहीं रख सकती
लड़कों के साथ लड़कियां घूम नहीं सकती, नाइट-आउट नहीं कर सकती
एक दूसरे को गले नहीं लगा सकती। मुझे याद है कि मेरा एक ही बेस्ट फ्रेंड है जो लड़का है। मैंने उसके गले मिली, उस समय तो कुछ नहीं हुआ। पर बाद में पता नहीं उसे क्या हुआ, उसने मुझसे बात करना बंद कर दिया। मुझे बहुत बुरा लगा, समझ ही नहीं आया कि हुआ क्या।
लड़कों की ज्यादा तारीफ नहीं कर सकते, क्योंकि वो हमेशा कुछ उलटा ही सोचते हैं, लड़कों के लुक पर कंमेंट नहीं कर सकते। अगर अच्छा बोला तो सोचेंगे कि हम फर्ल्ट कर रहे हैं, हमारे चरित्र पर भी सवाल उठा सकते हैं वहीं अगर कुछ बुरा बोला तो हम पर गुस्सा दिखाएंगे
लड़कों के साथ डांस नहीं कर सकते
लड़कों को लगता है कि लड़कियों दोस्तों के बीच डबल मिनिंग बातें नहीं कर सकती, लड़कों को लगता है कि वो लड़कियों को टच नहीं कर सकते
दोस्त है तो भी लड़का और लड़की एक साथ बाइक पर नहीं बैठ सकते, अगर बैठते हैं तो बीच में बैग रखते हैं
लड़का-लड़की एकसाथ ड्रिंक्स नही ले सकते, लड़कियां लड़कों की तरह खुलेआम गाली नहीं दे सकती, लड़का और लड़की दोस्त होने के बावजूद सार्वजनिक जगहों पर बैठकर एकसाथ खाना नहीं खा सकते, खुलकर हंस नहीं सकते।


सार्वजनिक स्थल-

चाय की टपरी पर लड़के गप्पे मारते, अलग-अलग मुद्दों पर बातें करते और चाय पीते दिखाई देते है
साड़ी की दुकानों पर महिलाओं को पुरुष साड़ी दिखाते हैं। ज्यादातर जिन दुकानों पर महिला संबंधित सामान मिलता है वहां पुरुष दुकानदार होते हैं


धर्म-

हर धर्म में महिलाओं को पर्दा प्रथा से गुजरना पड़ता है
इस्लाम में मस्जिद में सिर्फ पुरुष ही नमाज़ पढ़ सकते हैं
धर्म ग्रंथों में खुले तौर पर पुरुषों का प्रभाव दिखाई देता है
हिंदुओं में महिलाएं मंदिर के गर्भगृह में दाखिल नहीं हो सकती।
हिंदुओं में महावारी के दौरान महिलाओं को मंदिर और रसोई में नहीं जाने दिया जाता
हर धर्म में सबसे ऊंची पद्वी और धर्मगुरु पुरुष ही होते हैं


शिक्षा-

कक्षा में लड़के और लड़कियों को अलग-अलग बिठाया जाता है
लड़कियों को ऐसे विषय चुनने के लिए मना किया जाता है जिसमें प्रेक्टिकल करना होता है क्योंकि उसके लिए अलग से रुकना पड़ता है
रचनात्मक कामों के लिए हमेशा लड़कियों को ही अवसर दिए जाते हैं
शिक्षा के मामले में हमेशा लड़कों को ज्यादा तवज्जो दी जाती है
महिला टीचर ज्यादातर लड़कों की सुनती है तो पुरुष टीचर लड़कियों की
स्कूल में शारीरिक शक्ति वाले कामों के लिए लड़कों को बोला जाता है
नेतृत्व वाली जगहों में लड़कों को ही अवसर दिए जाते हैं
व्यायाम लड़के ही कराते हैं और खेल के शिक्षक हमेशा पुरुष ही होते हैं



इन उदाहरणों की मदद से हमने पित्तृसत्ता को लेकर समझ बनाई और साथ ही जेंडर आधारित भेदभाव की जड़ों को केंद्रबिंदू बनाकर समझाया कि ये व्यवस्था न केवल लड़कियों को बल्कि लड़कों को भी प्रभावित करती है। इस दौरान महिलाएं ही महिलाओं की दुश्मन होती है वाला जुमला एक बार फिर सुनाई दिया, पुरुषों पर भी अत्याचार बढ़ रहे हैं जैसी बातों से सामना हुआ। इस चर्चा से कई मिथक बातें सामने आई, काफी बहस हुई, सहमति और असहमति भी हुई, यानि बात को छेड़ना कामयाब रहा, क्योंकि अगर भविष्य में बनने वाले शिक्षक ही सवाल उठाएंगे तभी तो शिक्षा प्रणाली में कुछ बदलाव आएगा।


अगले सत्र की शुरुआत बकरी और भेड़िए के खेल से की गई जहां प्रतिभागियों ने खुलकर भाग लिया। ये देखना बहुत रोचक रहा कि शारीरिक बल के अलावा कई प्रतिभागियों ने बुद्धिमता का इस्तेमाल करते हुए भेड़ियों का घेरा तोड़कर आज़ादी हासिल की।


इसके बाद प्रतिभागियों को 6 समूहों में बांटते हुए एक-एक परिस्थिति दी गई, जिसे लेकर उन्हें ये चर्चा करनी थी कि ये एक प्रकार की हिंसा है या नहीं। अपने समूहों में इस पर चर्चा करने के बाद उन्हें सभी अहम बिंदूओं को बड़े समूह में बांटने के लिए निर्देशित किया गया।


महिलाएं ही घर में खाना बनाएंगी-
पुरानी सोच के अनुसार लड़कियों को ही खाना बनाना चाहिए। इसको लेकर कोई च्वाइस नहीं है तो ये एक प्रकार की हिंसा ही है
अगर कोई महिला बाहर जाती है, नौकरी करती है, थकी हुई है, बीमार है तब भी उसे ही खाना बनाना है तो हां ये हिंसा है
अगर खाना बनाने को लेकर उसके साथ टॉर्चर होता है तो हिंसा है
अगर महिला को खाना बनाने का शौक है तो ये हिंसा नहीं है
अगर लड़का-लड़की दोनों मिलकर भी खाना बनाते हैं तो ये हिंसा नहीं है


अगर आदमी घर में, घर के काम करते हैं तो उन्हें जोरु का गुलाम कहा जाता है-
हां ऐसे ताने मारना हिंसा में आता है क्योंकि घर का सारा काम महिलाएं करें ऐसा जरुरी नहीं है, पुरुषों को भी घर के काम में मदद करनी चाहिए
ये हिंसा है क्योंकि कोई भी काम कौन करेगा ये तय नहीं है, काम को मिलकर करना दोनों का कर्तव्य है

किसी भी शख्स के रहन-सहन, खान-पान, रंग-रुप के बारे में टिप्पणी करना-
ये एक तरह की हिंसा है क्योंकि वो मानसिक तौर पर परेशान हो जाता है, तनावग्रस्त हो जाता है। कानून के तौर पर भी ये अपराध की श्रेणी में आता है। महिलाओं के रंग-रुप को देखकर उनपर टिप्पणी करना छेड़खानी है जो अपराध है

छेड़खानी, रेप की घटनाएं इसलिए हो रही है क्योंकि लड़कियां मार्डन हो गई है, वो छोटे-छोटे कपड़े पहनती है, देर रात को घर आती है, मेकअप करती है, कोई भी आदमी ये सब देखकर एक्साइट हो सकता है।

ये एक तरह की हिंसा है क्योंकि ऐसा सोचना भर भी ये दिखाता है कि आपकी मानसिकता क्या है, रेप कपड़ों की वजह से नहीं बल्कि गलत सोच का नतीजा है। अगर ऐसा होता तो छोटी बच्चियों और बुजुर्ग महिलाओं के साथ क्यों रेप होता

छात्रों को उनकी मर्जी के बिना छूना
ये परिस्थिति पर निर्भर करता है, कई बार टीचर अपने मूड के हिसाब से काम करते हैं तो वो गलत है। ऐसा करना हिंसा में आता है
कई बार शिक्षक प्यार से या फिर प्रोत्साहित करते हुए छूते है तो वो गलत नहीं है

लड़कों को रोना नहीं चाहिए-

लड़कों की भी भावनाएं होती है, ऐसे में इस तरह की पाबंदी एक तरह की हिंसा है, रोकर वो अपना दुख कम कर सकते हैं। अगर भावनाएं सही तरह से व्यक्त करेंगे तो गलत संगति, नशे या हिंसा में हिस्सा नहीं लेंगे
इस वाक्य पर एकदम से जोरदार हां आई -जिसमें लड़के और लड़कियां दोनों शामिल थे। मुझे लगा कि ये बेहतरीन मौका है जहां हम महिला आधारित हिंसा को और उनपर हो रहे जेंडर आधारित भेदभाव जो हमें जीवन का अभिन्न अंग लगते हैं उसपर फोक्स लाया जा सकता है।

तो लड़के रो नहीं सकते ये एक बहुत बड़ी हिंसा है पर लड़की जब छोटी होती है तभी से उसे किचन का काम करना, खाना बनाना सीखाया जाता है। क्या कभी किसी ने पूछा है कि आपको खाना बनाना है या नहीं? थोड़ा बड़े होते ही अपने आप लड़कियां कीचन में क्यों चली जाती है, मेहमान घर आए तो ट्रे लेकर पानी कौन देता है, ससुराल के दूसरे ही दिन कीचन में महिला कैसे चली जाती है।



मेरे इस सवाल पर एकदम खामोशी छा गई, खुप सन्नाटा।

हां ये तो सच में बचपन से ही हमें बोला जाता है कि पढ़ाई तो ठीक है पर खाना बनाना नहीं आया तो पढ़ाई का क्या करोगी। ससुराल वाले क्या कहेंगे, हमारी नाक कटवाओगी क्या
शादी के लिए लड़का देखने आते हैं तो पहला सवाल यही होता है
ये बात तो सही है कभी किसी ने कहा ही नहीं, मैंने कभी सोचा ही नहीं, हमेशा मम्मी को खाना बनाते देखा, फिर खुद बनाया। लड़कियों के पास तो चुनने की आज़ादी या न बोलने की आज़ादी तो होती ही नहीं है

मैंने एक और बात कही – सोचो की अगर आज से ठीक 10 साल तक तुम्हें ब्रेकफास्ट, लंच और डीनर बनाना है 4 लोगों के लिए। इसके लिए आपको कोई सैलरी नहीं मिलेगी। आराम करो या न करो तीन टाइम का खाना तुम्हें ही बनाना है

इस पर सबके, हैरानी की बात है कि लड़कों के साथ साथ लड़कियों के भी चेहरे फक पड़ गए।
ऐसा तो मैंने कभी सोचा ही नहीं, मैंने तो अपनी मां से भी नहीं पूछा। ये तो गलत है, मैं तो एक पल के लिए घबरा ही गया
ऐसा सुनने के बाद समय में परिस्थिति की गंभीरता समझ में आई, सच में ये तो एक तरह की जेल है..हिंसा है


सत्र के दौरान हुए विचार विमर्श के बिंदूओं को जोड़ते हुए जेंडर आधारित हिंसा, उसके अलग प्रकारों को लेकर समझ बनाई गई और मुद्दे की गंभीरता पर जोर डालते हुए उसे जुड़े कई अहम आकंडे भी सांझा किए।

इसके बाद बाल यौन शोषण के बारे में चर्चा करते हुए हमने प्रतिभागियों को दो फिल्म के सीन दिखाए, और बतौर अध्यापक इस मुद्दे की जानकारी होना कितना अहम से इसपर जोर दिया। इस दौरान कार्यशाला का माहौल काफी गंभीर हो चुका था, बिलकुल चुप्पी के साथ प्रतिभागियों की निगाहे वीडियो पर केंद्रित रही। बाल यौन शोषण के खिलाफ़ लाए गए पोक्सो एक्ट पर चर्चा की गई और समझ बनाई गई।


कार्यशाला का पहला दिन भावनात्मक तौर पर काफी भारी रहा, इस दौरान प्रतिभागियों ने सत्र के अलग अलग मोड़ पर अपने निजी जीवन और आसपास के माहौल का विश्लेषण किया। पूरे दिन में हमें अलग-अलग तरीके से काफी अच्छा और प्रोत्साहित करने वाला फीडबैक भी मिला।

आज मैंने जेंडर संवेदनशीलता के बारे में सीखा, ये काफी महत्वपूर्ण है, मुझे बेहद अच्छा लगा

इस तरह की चर्चा आज के परिपेक्ष्य में बेहद जरुरी है, लोगों को जेंडर के प्रति जागरुक करना जरुरी है


आज के दिन में जिस तरह से हमें लैंगिक भेदभाव के बारे में जागरुक किया है, मैं दो बात हमेशा याद रखुंगा- इस भेदभाव का मैं हमेशा विरोध करुंगा और अगर ऐसे कोई और करते दिखा तो मैं उसे जरुर समझाउंगा


आज का अनुभव नया और बिलकुल बेहतरीन रहा- और लैंगिक भेदभाव के शमन के लिए वर्कशॉप का संचालन मेरी दृष्टि में सबसे उपयोगी रहा

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